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कुछ प्राचीन जैन विद्वान
पं० परमानन्द जैन शास्त्री, दिल्ली
बीपाल विद्य देव:
भी वहां रहे हैं। राजा जयसिंह दक्षिण के चौलुक्य या श्रीपाल विद्य देव द्रमिल संघ और प्ररुङ्गलान्वय सोलंकी वंश के राजा थे, वीर और पराक्रमी थे। सिंहपुर के प्राचार्य थे । यह अपने समय के बड़े भारी विद्वान् और उन्हीं के राज्य में था। उनके राज्यकाल के अनेक शिलातपस्वी थे। वे परवादिमर्श और षटदल्लन मे निष्णात योगी- लेख उपलब्ध हुए हैं। शक सं०६३८ से १६४ तक २६ श्वर थे। इनकी स्याद्वाद-भूषण, वादीभसिंह, वादीकोला- वर्ष तो उनका राज्य निश्चित ही रहा है। वादिराज तो हल और विद्य चक्रवर्ती मादि उपाधियां थीं। इससे उनकी राजधानी में रहे हैं और उनकी सभा में अनेक यह उस समय के बड़े भारी प्रतिष्ठित विद्वान जान पड़ते वादियों को पराजित भी किया है । वादिराज के गुरु
मतिसागर श्रीपाल विद्य देव के शिष्य थे। यस्य वागमतं लोके मिथ्यकान्त विषापहम् ।
शक सं० १०६७, सन् ११७५ ई०, के एक शिलालेख तस्मै श्रीपाल देवाय नमस्त्रविद्य-चक्रिणे
में होयसल वंश के विष्णुवर्धन पोमसलदेव ने जिन-मन्दिरों ॥(जैन खेख सं० भा० ३ पृ.७२)। के जीणोद्धारार्थ और ऋषियों के माहार-दानार्थ वादिराज जिनके वचनरूप अमृत से मिथ्या एकान्त रूप विष के वंशज श्रीपाल योगीश्वर को 'शल्य' नाम का एक गांव दूर हो जाता है; उन विद्य चक्रवर्ती श्रीपाल देव को दान मे दिया था : नमस्कार हो।
इनके दूसरे शिष्य वासुपूज्य व्रतीन्द्र थे, जो बड़े विद्वान सन् ११४५ ई. के एक लेख में उन्हें-'स्याद्वादाचलमस्तके थे। ये शिक्षा-दीक्षा और सुरक्षा में निपुण थे। जैसा कि स्थितिरसो श्रीपाल कण्ठीरवः' लिखा है। यह गद्य-पद्य- शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है। रूप दोनों तरह की रचना मे कुशल थे। इससे वे प्रकाण्ड श्रीपाल विद्य विद्यापति पद कमलाराधना-लब्ध-बुद्धि, विद्वान् ज्ञात होते है । पर खेद है कि उनकी इस समय सिद्धान्ताम्भो-निधान प्रविसरबमृतास्वाद - पुष्ट-प्रमोदः। कोई रचना उपलब्ध नही है । जैन शिलालेख-संग्रह दीक्षा-शिक्षा-सुरक्षा-कम-वृत्ति-निपुणः सन्तत भव्य-सेव्यः, तृतीय भाग के अनेक लेखों में श्रीपाल विद्य की प्रशंसा सोऽयं दाक्षिण्य-मूर्तिजंगति विजयते वासुपूज्यः वतीनः ।। की गई है। इनके अनेक विद्वान शिष्य थे। बादिराज
जैन लेख सं० भा० ३ पु० १४८ ॥ सूरि ने 'पाश्वनाथ चरित' की प्रशस्ति में अपने दादा गुरु श क सं० १०९५-११७३ ई. में श्रीपाल विद्य देव श्रीपाल देव को "सिंहपुरक-मुख्य' लिखा है, जिससे स्पष्ट के शिष्य वासुपूज्य देव को, होयसल बल्लाल देव के सन्धि हकि वे सिंहपुर के निवासी थे। सम्भवतः यह सिंहपुर विग्रही मंत्री चिमप्प ने सिगेनाड माकली में त्रिकूट उन्हें जागीर में मिला हुआ था। इस परम्परा का मठ जिनालय बनवा कर उस गांव के देवता की पूजा पौर भी वहाँ था। वादिराज और उनकी परम्परा के मनिजन माहार-दानादि के लिए दान दिया था। १. 'इन्तु निरवद्य स्याद्वाद भूषण गण पोषण समे सरु- २. अकलक सिंहासनारूतसं ताकिक पक्रवतिगलु पावन
मागि वादीम सिंह वाविकोलाहल ताकिक चक्रवर्ती- विषयमो षट् तर्काविलबहु-नि-सङ्गतं श्रीपालदेम्बा श्रीपाल विध देवर्ने ।' (जैन लेख सं० भा. विद्य-गद्य-पद्य-बचो-विन्यासं निसर्ग-विजय-विला:
सम् ।" (जैन लेख सं० भा० ३ पृ. ११५)