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________________ ९., वर्ष २८, कि०१ अनेकारत था तब पर की वांछा थी। जब जान लिया कि सुख तो परन्तु किसी चीज में अपनापना नहीं । जब अपने उतरने 'स्व' में रमण करने से होता है. 'पर' से नहीं, नब वांछा का स्टेशन प्राता है तो कहता है कि फिर कभी मिलेंगे। का कोई प्रयोजन नहीं रहा । वस्तु स्वभाव जब उनके स्त्री, पुत्रादि का सम्बन्ध ऐसा ही समझता है जैसे मुसासमझ में प्रा गया तो 'पर' से ग्लानि का भी कोई प्रयो- फिरखाने में ठहरे हुए मुसाफिर हों। जैसे रोग होने पर जन रहा नहीं । पहले भगवान के प्रति मूढ बुद्धि थी, कोई दवाई लेनी पड़ती है, उसी प्रकार से भोगों का सेवन शासन के प्रति मूढ बुद्धि थी, गुरु के प्रति मूढ़ बुद्धि थी, करना पड़ता है, इसलिए कर रहा है परन्तु अन्तर से हटना तस्व के प्रति मूढ बुद्धि थी कि वह भला करने वाले हैं। चाहता है। कषाय की बरजोरी से हट नहीं सकता। धन जब मूढपना छुट कर, जैसा उनका स्वरूप था, वह समझ के प्रति प्रासक्ति का प्रभाव हो गया, इसलिए पात्र को देख में पा गया तब सब जीवों के प्रति वात्सल्य भाव पैदा हो कर यह चेष्टा करता है कि यह किसी के सत्कार्य में लग गया अब वह किसी का प्रहित नहीं चाहता । जो जीव सके, इसलिए पात्रा दागदि में प्रति उत्साहवान होता है। धर्म से च्यूत होता है, उसे सहारा देकर फिर धर्म में स्थापित अपनी शक्ति के अनुसार तप की भावना लाता है कि वह करता है, अन्य के दोषो को नही देखता और जहाँ तक दिन कब आवे जब मैं एकाकी समस्त परिग्रह से हट कर बने प्रात्मधर्म की बढवारी करना चाहता है । इस प्रकार अपनी आत्मा मे ठहर कर, प्रात्म-स्वभाव का मानंद लुटूं। दर्शन विशुद्धता को प्राप्त होता है । विनय गुण विकास प्रात्मा के प्रानन्द में ऐसा भान होता है कि बाहर में खाने को प्राप्त होता है, विनम्र भाव को प्राप्त होता है, कठो- पीने की फिकर से रहित हो जाता है। इस प्रकार भगरता परिणामों से हट जाती है। जब 'पर' में अपनापना वान महावीर के जीव ने सहज शरीर को कष्ट दिए बिना नहीं रहा तो पर का अहंकार भी नहीं रहा, धन-वैभव- अनेक प्रकार तप को धारण किया और निरन्तर यह शरीर और पुण्य के उदय का कोई मद नही रहा । जब भावना की कि मैं सहज समाधि को प्राप्त हो जाऊँ। मद नही रहा तो सहज स्वाभाविक बिनम्रता प्रगट जो कोई साधक रोगी हो, कोई तकलीफ में हो, उसके होती है । हम बड़ों की विनय करें, यह स्वाभाविक विनय गुण नहीं, यह तो कन्डीशनल बात है कि कोई ऐसा हो प्रति यह भावना होती है कि किस प्रकार उसके रोगादि को मेटने में सहायक बन । प्ररहंतादि जो शिखर है, प्रात्म तो मैं विनय करूं। परन्तु जो प्रात्मा का गुण होता है कल्याण की मंजिल हैं, उस मंजिल के प्रति अत्यन्त अनुवहाँ बड़े-छोटे का, धर्मात्मा अधर्मात्मा का, सवाल नहीं . राग को प्राप्त होता है। उन शास्त्र के प्रति जो प्रात्मरहता, कहाँ तो मात्र इतनी ही बात है कि कोई भी हो मैं तो अपने विनयपने में निरहंकारता में, निर्मदपने में । कल्याण में साधन है उनके प्रति विनय को, बहुमान को, प्राप्त होता है। कभी स्तोत्र पढता है. कभी ध्यान करता है, कभी भगवान को वंदना करता है, कभी पापों का प्रायजब परिणामों में सरलता पाई तो परिणाम शील के श्चित करता है और निरन्तर धर्म की प्रभावना करता पालन करने की तरफ सहज झुके, शील की महिमा अंतर है। इस प्रकार की भावना भाता हमा अन्तर निज मात्मा में पाई, विषय भोगों को महिमा हटी। निरन्तर ज्ञान का के रस में डबकी लगता रहता है। इन भावों से वह अगले पभय-सा रहता है, अन्तर में मिज ज्ञान स्वभाव के सम्मुख भव में भगवान महावीर बनने लायक पात्रता को प्राप्त होता है, बाहर में पागम शास्त्र अध्ययन के द्वारा अपने होता है। भगवान महावीर होने के लिए पहले भव में इस को बढ़ाने का उपाय करता है। फिर संसार शरीर भोगों प्रकार की स्थिति को प्राप्त होना जरूरी है। वही जीव से उदासीनता को प्राप्त होता है । भेद ज्ञान के बल पर भगवान महावीर के रूप में जन्म लेता है । उस व्यक्ति को समझ में पाता कि जैसे कोई रेलगाड़ी में बैठा हो और बड़े-बड़े वैभव के धारी इन्द्रादिक देव चक्रवर्ती राजा महा उस सीट को, डब्बे को भी अपना कहता हो, दूसरे मुसा- राजा सेठों को देख कर संसार में अन्य दु.खी प्राणियों को ..फिर बैठे हैं उनसे प्रेम से बात करता हो, साथ रहता हो, देख कर, प्रत्यन्त करुणा पैदा होती है। जैसे किसी प्रत्यात
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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