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________________ भगवान महावीर : एक नवीन दृष्टिकोण 0 श्री बाबूलाल जैन, दिल्ली भगवान महावीर की साधना शेर की पर्याय से प्रारंभ दिया । प्राज मुझे यह ज्ञान-ज्योति प्रगट हुई है । इस होती है । जब भगवान महावीर होने वाला वह जीव शेर प्रकार जब शेर विचार करने लगा तो उसके नेत्रो से अश्रुकी एर्याय मे भूख से व्याकुल होकर एक मृग का शिकार धारा बहने लगी। साधु सम्बोधन करके चले गए। कर रहा था; उसी समय दो साधु जो सयम और तप की प्रब वह शेर की पर्याय मे था परन्तु उसने अतुलमूर्ति थे, पात्मज्ञान का साकार रूप थे, वहाँ पाते है और निधि को, स्व निधि को प्राप्त कर लिया था। तब अपने उस शेर को सम्बोधन करते है । वे यह नहीं कहते है कि स्वरूप का मालिक था, शरीर में रहते हुए भी शरीर में तुने मग को मारा है, तू हिंसक है, तू नरक मे जायेगा। अपनापना नहीं था। जिस प्रकार एक धोबी ने किसी को परन्तु उसे प्रात्म-तत्व के सम्मुख करने का उपदेश देते कपड़ा लाकर दिया, उसने उसको अपना कपड़ा समझ है । वे कहते है-हे पात्मा! अनतकाल से तू संसार मे चक्कर कर पहन लिया । फिर धोबी ने पाकर यह बताया कि लगा रहा है, कोई ऐसा स्थान नही जहाँ तू पैदा नही इसमें तो दसरे का चिह्न लगा है । यह पापका नहीं है। हुमा, कोई ऐसी अवस्था नही जिसको तूने प्राप्त नहीं जब उसने चिह्न को मिलाया तो मालूम हुमा इसमे हमारा किया । अपने आत्मस्वरूप के ज्ञान के बिना इस कर्म सयोग चिद्ध नही है। यद्यपि अभी वह कपड़ा पहने था, उतारा से प्राप्त हुई अवस्था को ही अपना जान कर राग-द्वेष को नही था, परन्तु अपनापना तो तुरन्त छूट गया था, स्वाप्राप्त होकर तूने कर्मों का बन्ध किया और उस कर्म-फल मे मित्वपना, मालिकपना छुट गया था। इसी प्रकार शेर को फिर अपनापना मान कर फिर राग-द्वेष किया। इस निज स्वभाव की पकड़ पाते ही 'पर' होते हुए, शरीर प्रकार कभी अच्छे कर्म करके देव हुआ, कभी खोटे कर्म होते हुए, उसमे मै पना नही रहा । यह अन्तर क्रान्ति थी करके नरक को प्राप्त हमा, कभी मिश्रित कर्म करके जो किसी क्रिया से धटित नही होती है परन्तु निज के मनुष्य और पशुपने को प्राप्त हुमा परन्तु कर्म के फल से जानने से घटित होती है। भिन्न, निज स्वभाव मे अपनापना नहीं माना । अपने स्व- इस पर्याय की प्राय पूरी करके वह शेर का जीव, भाव को नही जानने की अज्ञानता से राग-द्वेष हुमा, राग- और दो चार पर्याय धारण करके, अपनी साधना को द्वेष से कर्म-बन्ध हुआ, कर्म के उदय से शरीर मिला, बढाता हमा, भगव न महावीर बनने की पात्रता को प्राप्त शरीर से इन्द्रियां मिली और फिर उनमें इसने अपनापना करने लगा और एक पर्याय पहले वह जीव उसी प्रात्ममानकर राग-द्वेष किया। हे जीव ! जरा समझ, तू कौन ज्ञान के बल पर, निज 'पर' की पहनान करता हुआ अपनी है, तेरा अपना क्या है। वारम्बार जब उस शेर को उन एक अकेली मात्मा मे, अपनेपन का अनुभव करता है। करुणासागर साघुरो ने सम्बोधित किया तब उस शेर की वह सात प्रकार के भय से रहित हो जाता है क्योंकि चेतन दृष्टि बाहर से हटकर अपने चेतन स्वभाव को ढढने लगी प्रात्मा का तो मरण होता नही और जिसका मरण होता और उसने जाना कि माज तक जिसको मैं मान रहा था, है, वह अपना है नही, इस लिए मरण का भय नही रहा। 'वह तो मैं नहीं, वह तो कर्म संयोग से मिली हुई अवस्था यहाँ भय करने, नही करने का, सवाल नही, भय रहा ही हैं, मेरा अपनापना तो अपने निज स्वभाव में है। पोहो, नहीं । जब मरण का भय नहीं रहा ती जन्म का भय भी मैंने अनन्त काल इस 'पर' को निज रूप जान कर बिता नही रहा । पहले सुख-दुःख का कारण 'पर' को जानता
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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