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५८ वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
नख पर केस तहां धरे कोनो तव कीनौ तव संसकार।११० छिमा सबद जग में प्रसाद यह तात नाम कुसल है चंद। छंद-सुर सक्र सची सुरची बहु भांति रचौ तन ताहि परम नाम सुख ही के जानौ भयो परमसुख चौथे नंद ॥११७
प्रनाम चए। दोहरा छंद-छिमाचंद के नंद को नाम स्वाद अनुसार। फिरि अग्निकुमार करी नुत सार सु प्रस्तुति पट करि अ लपमति बहु तुच्छ बुधि कोनो यह विस्तार ॥११८
सोस नए। छंद-करम जोगई करुना कारन प्राये नगर सकूराबाद । तबहिं मुकुट ते प्रगिनि झरी सुजरघो तन तातें भस्म भए। तह कारन सुभ सफल सुकरि के भयो नहीं तहां हरष विषान सुर हरषित चित्त सुभस्म पवित्र लगाइ सुमाथन थान गए॥ श्रावग सेवा दस तनवर जी तिनिसौ मिलि पायो प्रहलाद ॥ दोहरा छंद-समदविज को नंबवर भयो सुसिवमय सिद्ध। दोहरा छंद-भई मित्रताई मिलतहिं मनमें हरष उपाइ । तिनके गत बरननि करी सुपाचे बह विधि रिखि ॥११२ लघ नंदन के नम वार जनै प्रति सुखराइ ॥१२० छंद-रिधि सिघि सुबहु विधि पाव गाव गन जिनके छंद-तिनि असो उपदेस दियो हम कोई बनावै मंगल माल ।
अमलीन । तिनिको मन उपदेस लगे सभ तिनको हेत रच्यो वह लाल । मन वच काय सुध मन करिक पढे पढ़ावै सो बधिवान। क्रस्न पच्छि सप्तमी दिन जानौ सोमवार मारगतर पुत्र पौत्र प्रताप बढ़ जस नरभव सुखतं सुरग निदान ।
सुविसाल। धुनकलाल जन कहै कहां लग प्रनक्रम ते प्रविचल निखान। चिति चारि वस चंद अंक सव संवत के जाने हलसार ॥१२१ दोहरा छंद-ग्रंख तंडग नगर में श्रावक बसौ सुजान। दोहरा छंद-भलचक अछिर प्रमिल कोज सुद्ध प्रवान ।
देव धरम गुरु ग्रंथ की ये तिनिको सरधान ॥११४ महाविजछिन चतुर सौं कवि यह विनती कौन ॥१२२ छंद-कर सरपान सुजिन पहिचान सुमन में प्रान यही माने छंद-कवि करि विनती महादीनता सुनो विजछिन परम देव परम अरु ग्रंय विना अरु दूजो देव नहीं जाने ।
प्रवीन । समकित की परतीति घर मन मोर कु कोया नहीं ठाने । लघदीरघ मैं कछ अनजानौ तां ऐसी है मो मति हान। सापरमी जिन सासन वरती तिनि सौं प्रीति अधिक प्रान। सो बधि प्रायनि नहीं सयानी तातै घरज सहज हम कान। दोहरा छंद-तिनि मैं श्रावसिंधमनि जिनमारगमहिलीन। जिनि के गत को घर को नहीं पारत र कहाँ बुधिबल ह पुत्र चारि तिनिक भए साधरमी परवीन ॥११६
मति छीन ॥१२३ छंद-प्रथमपुत्र को नाम रतन सम तात कहिए मानिकचंद इति श्री नेमिनाथ जी के विवाह को वरननु बुध अनुसार हरि उपोत घरै प्रति उजिल ऐसे गुन धार हरिचंद ।
समापतं ।
उदभावना संयम, व्रत और तप, शक्ति के अनुसार ही धारण करने चाहिए । शक्ति से अधिक नियम लेने से वे भंग होंगे ही, और उनमें अवश्य दोष पायेगा। परन्त इसका यह अर्थ नहीं कि अपने को शक्तिहीन मान कर, स्वच्छन्दी हो जायँ । वर्तमान शक्ति के पर्याय योग्यता के अनुसार चारित्र-धारण करके, अपनी शक्ति का उत्तरोत्तर विकास करने का पुरुषार्थ निरन्तर करे, और इस प्रकार क्रम से वीतरागता को सीढ़ियाँ चढ़ता जाए।
किया है।
वह बड़ा नहीं है कि जिसने ज्ञानोपार्जन किया है-बड़ा वह है कि जिसने चारित्र धारण
-महेन्द्रसेन जैन