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________________ १२०, वर्ष २८, कि.१ अनेकान्त स्थिति नही (के जैसे)" ऐसा अर्थ है। यह अर्थ अधिक वाद संयोग नहीं, बल्कि जापान में जैन धर्म के अध्ययन तर्कसंगत है, कारण शस्त्र के लिए भी प्रभेद्यता है। 'फिर की अावश्यकता का जो अनुभव किया गया है, वह व्यक्ति रोग से मुक्ति के लिए पौषध की अनावश्यकता' और 'शस्त्र विशेष के प्रयास में पूर्तिलाभ कर रहा है। यह जापानी के लिए अभेद्यता नहीं' के बीच वैसी संगति नहीं जो दोनों विद्वानों के लिए उपयोगी है, कारण इसमें उनके अपने एक साथ उपमा का काम करें। वस्तुत: इस गाथा में बौद्ध-धर्म के सम्बन्ध में सामग्री है। साथ ही जैन धर्म के उपयोगिता खतम होने की बात पर बल है-दान्त इन्द्रिय- जिज्ञासुनो, उसके अनुयायियो एवं विद्वानों को भी इसमें जेता के लिए बन और आश्रम की जैसे कि व्याधिमुक्ति लाभ हो सकता है, कारण बौद्ध धर्म की शिक्षा और के लिए प्रौषध की। इस संदर्भ मे शस्त्र के लिए प्रभेद्यता संस्कार में पले होने के कारण मात्सुनामी जी का अनुवाद नही' अर्थ करने से गाथा के अर्थ में असंगति मा जाती है। कही-कही परम्परा के अधिक संनिकट और तर्क पगत है। मात्सुनामी जी का इसिभासियाइ का जापानी अनु 00 [पृ० ११७ का शेषांश] धर्म का अत्यधिक विकास हुया। पूर्व में खजुराहो (जिला हा। मूतियों में प्रतिमा लक्षणों की ओर विशेष ध्यान (छतहपुर) इस क्षेत्र का एक केन्द्र बना, जहा मन्दिरो के दिया गया है। अतिरिक्त अनेक कलात्मक मूर्तियां दर्शनीय है। पूर्व तथा पूर्व युगो के अनुरूप बहुसंख्यक मध्यकालीन जैन उत्तर मध्यकाल (१२०० से १८०० ई०) में मध्यप्रदेश .... कलाका कलाकृतियां अभिलिखित मिली हैं। उन पर अकित लेखो के भनेक क्षेत्रों में कला का प्रचर विकास हमा। अहार, से न केवल धार्मिक इतिहास के सम्बन्ध में जानकारी वीना-बारहा, अजयगढ, बानपुरा, मोहेन्द्रा, तेरही, दमोह, प्राप्त हुई है, अपितु राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा गंधरावल, ग्वालियर, ग्यारसपुर, भानपुरा, बड़ोह-पठारी भाषात्मक विषयो पर रोचक प्रकाश पड़ा है। मध्यप्रदेश के विभिन्न सार्वजनिक सगहालयो तथा निजी संग्रहां के प्रादि कितने ही स्थलो से जैन कला की प्रभूत सामग्री अतिरिक्त कला की विशाल सामग्री आज भी विभिन्न उपलब्ध हुई है। इसे देखने पर पता चलता है कि वास्तु प्राचीन स्थलों पर बिखरी पड़ी है, जिसकी समुचित सुरक्षा कला तथा मूर्तिकला अनेक रूपों में यहाँ विकसित होती मातकला अनक रूपा म यहा विकसित होता की ओर अब तुरंत ध्यान देना आवश्यक है। है रही। अधिकांश मन्दिरों का निर्माण नागर शैली पर विशाल हृदय पाण्डवों को वनवास देकर कौरव खुशियाँ मना रहे थे । कौरव लोग खुशियाँ मनाने गन्धर्वबाग को उपयुक्त समझ कर वहाँ पहुँचे। गन्धर्वो ने बाग में हानि होने की सम्भावना से उन्हें बाग में उत्सव मनाने को मना किया । किन्तु कौरव नहीं माने । तब गन्धर्व उन्हे रोकने को कटिबद्ध हो गए । यह सब देख अन्य कौरव तो भाग गये किन्तु उन्होंने दुर्योधन को पकड़ लिया। जब युधिष्ठिर को यह सूचना मिली तो उन्होंने कहा-हम घर में १०० और ५ हैं किन्तु दूसरों को १०५ हैं। उन्होंने अर्जुन को भेज कर दुर्योधन को छुड़ा लिया।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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