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७०, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
हो गई थी, अत: जैन कवि भी संस्कृत की ओर उन्मुख इसमे है। कवि का उद्देश्य इसे कथा बनाने का है, उसने हो रहे थे, तथापि प्राकृत भाषाओं के प्रति जैन विद्वानों में इसे कथा कहा है । अन्य प्राचार्यों ने भी इसे कथा के रूप रुचि एवं श्रद्धा बनी रही। प्राकृत ग्रंथों में लीलावई-कहा मे ही उल्लिखित किया है। इसकी शैली संवादात्मक है। के प्रतिरिक्त वाक्पतिराज का गउडवहो, हरिभद्रसूरि की अन्तः कथाएं मूल कथा के विकास में सहायक हैं। कथा समराइच्च-कहा और धूर्ताख्यान तथा उद्योतन सूरि की का नामकरण नायिका के नाम पर है। ऐसी स्थिति में कुवलयमाला विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
यह प्रयास उपयोगी और अपेक्षित प्रतीत नहीं होता कि
हम लीलावई में जिसकी सर्जना और विकास कवि ने लीलावई-कहा की तीन पांडुलिपियां क्रमश: पट्टन,
सम्पूर्ण चेतना के साथ एक कथा के रूप में किया, जैसलमेर और बीकानेर से मिली है, जिसका प्रकाशन डा०
महाकाव्य के कतिपय तत्व दृढकर उसे महाकाव्य सिद्ध ए० एन० उपाध्ये के सम्पादकत्व मे सिंधी जैन ग्रंथमाला
करने का प्रयत्न करे। ग्रन्थ में रसात्मकता होना, शैली से सन् १९४६ तथा १९६६ मे दो बार हुआ है। लीलावई.
का उदात्त होना चरित्र और उद्देश्य का महत् होना ये कहा पर एक ही किसी अज्ञातनामा संस्कृत टीकाकार की
महाकाव्य के लिए पृथग्रुप से निश्चित तत्व नहीं हो संस्कृत-कथा-वृत्ति मिलती है, जो बीकानेर वाली पाण्डु.
सकते । मेघदूत और गीतगोविन्द रसात्मक, उदात्त शैली लिपि के साथ प्राप्त हुई है । लीलावई-कहा के दोनों प्रका
से युक्त, भावसम्पन्न एवं गरिमामय है, पर वे महाकाव्य शित संस्करणो के साथ इसका प्रकाशन हुपा है।
नही । दूतवाक्य एकांकी रूपक है, जिसमें पाडवों के दौत्य ग्रन्थकार के अनुसार यह ग्रंथ १८०० छंदों में रचित में संलग्न नायक कृष्ण उत्तम चरित्र वाले और महान था। इसमे १३३० उपलब्ध है। (बीच-बीच में गद्य निर्देश उद्देश्य के सिए प्रयत्नशील व्यक्ति है, तथापि एक लघुरूपक है तथा एक स्थल पर प्रतिष्ठान का सक्षिप्त वर्णन भी मात्र है। गद्यमय है।) यह एक पद्य-काव्य है। इसमें समस्त रसो सामान्यतः महाकाव्य के क्षेत्र में स्वाभाविक रूप से पौर चारों वर्गों का अभिधान है । यह कृति वहदाकार है, लीलावई-कहा मे अनेक त्रुटियाँ प्रत्यक्ष है। भले ही हेमचंद्र लघु काव्यों में परिगणित नहीं की जा सकती, क्योकि ने रावण विजय और हरि विजय को उद्धृत कर स्वच्छंदाग्रन्थ का वस्तुतत्व किसी लधु घटना पर आधारित या त्मक रचना को महाकाव्य के रूप में परिगणित किया हो, किसी प्रसिद्ध इतिवृत का अश नहीं है । इसमे कथा नायक किन्तु सुदृढ़ परम्परा के अनुसार महाकाव्य का सर्गवन्धत्व के व्यापक जीवन का विवरण प्रस्तुत है। प्रतः लीलावई- (प्राकृत मे पाश्वासबन्धत्व) एक अपरिहार्य तत्व है। कहा पद्यात्मक महाप्रबन्ध, महाकाव्य या बृहत्काय कथा इसी प्रकार धीरोदात्त गुणान्वित कथानायक को स्थापित (सकलकथा, परिकथा) हो सकती है। धीरशान्त नायक करना दूसरी प्रधान प्रावश्यकता है। शेष तत्व इन्ही के तथा एक विजेता द्वारा सुनाई गई अनेक प्रतियोगियों की चतुर्दिक एकत्र हो जाते है और वे अन्यत्र भी समान होते है। कथा न होने से यह सकलकथा के लक्षणों के अनुरूप भी लीलावई मे उक्त दोनों प्रमुख तत्वों का अभाव है। ऐसी नहीं है। समस्त फलान्त प्राकृत-पद्य-प्रबन्ध होने से यह स्थिति में उसे महाकाव्य नहीं, कथा माना जायगा। रुद्रट प्रानन्दवर्द्धन और अभिनवगुप्त के लक्षणों के अनुसार के अनुसार उसे महाकथा और प्रानन्दवर्द्धन के अनुसार सकलकथा हो सकती है। डा० नेमिचन्द शास्त्री ने इसे सकल कथा कहा जा सकता है। हमारी दृष्टि से लीलावईमहाकाव्य कहा है। इसमें एक महाकाव्य की भांति प्रारम्भ कहा एक कथात्मक महाकाव्य है । में सन्नगरीवर्णन, ऐतिहासिक कथानायक, वसन्तवर्णन, युद्ध जैन कथाकारो के वर्गीकरण के अनुसार यह कामकथा योजना, प्रतिनायक-योजना, सभी तत्व इस रूप में है कि या विकथा के अन्तर्गत स्त्रीकथा या राजकया कही इसे रुद्रट की परिभाषा के अनुसार महाकाव्य भी कह जायगी। दिव्यादिव्य पात्रों की मिश्रित कथा होने से यह सकते हैं। साथ ही रुद्रटोक्त महाकाव्य के भी सभी लक्षण दिव्यमानुषी कथा भी है।