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________________ २४०, वर्ष २८, कि०१ परोक्ष के भेद : जो साध्य का ज्ञान होता है वह अनुमान है । जैसे घूप से ___ तत्वार्थसूप्रकार" ने परोक्ष के दो भेद कहे है-(१) अग्नि का ज्ञान । शब्द, संकेत प्रादिपूर्वक जो ज्ञान होता है, मतिज्ञान और (२) श्रतज्ञान । इद्रिय और मन की वह श्रुत है । इसे पागम, प्रवचन आदि भी कहते है । सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मति ज्ञान है तथा जैसे-'मेरु प्रादिक है' शब्दों को सुनकर सुमेरु पर्वत प्रादि मति-ज्ञानपूर्वक होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान का बोध होता है। ये सभी ज्ञान परापेक्ष और अविशद और श्रुतज्ञान--ये प्रागमिक परोक्ष भेद है। अकलंकदेव" है। स्मरण मे अनुभव; प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मने आगम के इन परोक्ष भेदों को अपनाते हुए भी उनका रण; तर्क में अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान; अनुमान दार्शनिक दृष्टि से विवेचन किया है। उनके विवेचना- में लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण और श्रुत में शब्द एवं 'संकेनुसार परोक्ष प्रमाण की संख्या तो पांच ही है, किन्तु तादि अपेक्षित है, उनके बिना उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं उनमें मति को छोड़ दिया गया है, क्योंकि उसे संव्यवहार है। अतएव ये और इस प्रकार के उपमान, अर्थापत्ति प्रत्यक्ष माना है तथा श्रुत (प्रागम) को ले लिया है। प्रादि परापेक्ष भविशदज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गए है। इसमे सैद्धातिक और दार्शनिक किसी दृष्टि से भी बाधा अकलंक ने इनके विवेचन मे जो दृष्टि अपनायी, वही नही है । इस तरह परोक्ष के मुख्यतया पांच भेद है"- दृष्टि विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि प्रादि ताकिकों ने अनुसृत (१) स्मृति, (२) संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), (३) चिता- की है। विद्यानन्द" ने प्रमाण-परीक्षा में और माणिक्य(तर्क), (४) अभिनिबोध (अनुमान) और (५) श्रुत- नन्दि५ ने परीक्षा-मुख में स्मृति आदि पाचों परोक्ष (पागम)। प्रमाणों का विशदता के साथ निरूपण किया है। इन पूर्नानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मति कहते है। जैसे दोनों ताकिको की विशेषता यह है कि उन्होने प्रत्येक की 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान । अनुभव सहेतुक सिद्धि करके उनका परोक्ष में ही समावेश किया तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान संज्ञा ज्ञान है। है। विद्यानन्द" ने इनकी प्रमाणता में सबसे बड़ा हेतु इसे प्रत्यभिज्ञा या प्रत्यभिज्ञान भी कहते हैं । यथा... यह उनका प्रविसंवादी होना बतलाया है। साथ ही यह भी वही है', अथवा 'यह उसी के समान है' या 'यह उससे कहा है कि यदि कोई स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान विलक्षण है' आदि। इसके एकत्व, सादृश्य, वैसादृश्य और श्रुत (पद-वाक्यादि) अपने विषय मे विसवाद(बाधा) प्रातियोगिक प्रादि अनेक भेद माने गए है । अन्वय (विधि) उत्पन्न करते है तो वे स्मृत्याभास, प्रत्यभिज्ञाभास, तर्काऔर व्यतिरेक (निषेध) पूर्वक होने वाला व्याप्ति का भास, अनुमानाभास और श्रुताभास है । यह प्रतिपत्ता का ज्ञान चिन्ता अथवा तर्क है। ऊह अथवा ऊहा भी इसे कर्तव्य है कि वह सावधानी और युक्ति प्रादि पूर्वक निर्णय कहते है । इसका उदाहरण है... इसके होने पर ही यह करे कि अमुक स्मृति निर्बाध होने से प्रमाण है और अमुक होता है और नही होने पर नही ही होता। जैसे "अग्नि सबाध (विसवादी) होने से अप्रमाण है । इसी प्रकार के होने पर ही धुनां होता है और अग्नि के अभाव में प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और श्रुत के प्रामाण्याप्रामाण्य धुप्रां नही ही होता । निश्चित साध्यविनाभावी साधन से का निर्णय करें । ये पाँचों ज्ञान यतः अविशद है, अतः ६०. 'माद्ये परोक्षम्'। -त. सू. १.११ । शब्दयोजनात् शेषं श्रुतज्ञानमनेकप्रभेदम् ।' लघीय. ६१. प्र. सं. १-२, लघी. १.३।। २-१० की वृत्ति । ३२. 'परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः ।' ६४. प्र०प० पृ० ४१ से ६५ । प्रमाणसं.२। ६५.५० म० ३.१ से १०१। ६३. 'प्रविसंवादस्मृत': फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा। ६६. 'स्मृतिः प्रमाणम्, अविसंवादकत्वात्, प्रत्यक्षवत् । यत्र स्मृतिः संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य। संज्ञा चिन्तायाः तु विसंवादः सा स्मृत्याभासा, प्रत्यक्षाभासवत् ।। तर्कस्य । चिन्ता. अभिनिबोधस्य अनुमानादेः। प्राक् . प्र.प.पृ० ४२ ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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