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श्रमण-परम्परा को प्राचीनता
पालन करने में असमर्थ होता है, वह गहस्थ धर्म का गम्भट्रियस्स जस्स उ हिरणवट्ठी सकंचणा पडियो। पालन करता है।
तेणं हिरण्णगम्भो जयम्मि उगिज्जए उसभो । त्याज्या नजनविषयान् पश्यनोऽपि जिनाज्ञया ।
अर्थात जिमके गर्भ मे याने पर मुवर्ण को वृष्टि हुई, मोहात्त्यनुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते ।। इसी से ऋषभ जगत् मे हिरण्यगर्भ कहलाये।
जो जिनदेव के उपदेशानुमार, संसार के विषयो को ऋग्वेद म. १०, सूक्त १२१ की पहली ऋचा इस त्याज्य जानते हए भी मोहवश छोड़ने में असमर्थ है, उसे प्रकार हैगहस्थ-धर्म का पालन करने की अनुमति दी जाती है। हिरण्यगर्भ समवर्तता भतस्य जातः पतिरेक मासीत् ।
जैन धर्म के पाँच व्रत प्रसिद्ध है - अहिंसा, सत्य, स दाधार पृथिवी द्यांमुतेमा कस्म देवाय हविषा विधेम ॥ प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इनका सर्व देश-पालन
इसमें कहा गया है कि पहले हिरण्यगर्भ हुए। वह प्राणीथमण करते है और एकदेश को गृहस्थ पालता है । अतः
मात्र के एक स्वामी थे। उन्होंने प्राकाश सहित पृथ्वी को श्रमणों के व्रतों को महाव्रत और गृहस्थों के व्रतों को
धारण किया। अणुव्रत कहते है। भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थकरो ने गहवास छोड़ कर श्रमण
उघर महाभारत शान्तिपर्व अ. ३४६ मे हिरण्यगर्भ धर्म को अगीकार किया था।
को योग का वक्ता कहा है----
'हिरण्यगर्भः योगस्य वक्ता नाग्यः पुरातनः।' वैदिक साहित्य में श्रमण तत्त्व __ श्रीमद्भागवत मे ऋषभदेव का जो चित्रण है, वह प्रर्थात् हिरण्यगर्भ योगमार्ग के प्रवर्तक है, अन्य कोई भी जैन मान्यता का ही समर्थन करता है। उसमे उनकी उनसे प्राचीन नही है। तो क्या ऋषभ ही तो हिरण्यगर्भ तपस्या का वर्णन करते हुए कहा गया है-उस समय केवल नहीं हैं ? शरीर मात्र उसके पास था और वे दिगम्बर-वेष में भगवान् ऋषभ इक्ष्वाकुवंशी थे। इक्ष्वाकु मूलतः पुरु नग्न विचरण करते थे । मौन से रहते थे। कोई डराये, राजामों की एक परम्परा थी। यद्यपि ऋग्वेद में पुरुषों मारे, ऊपर थके, पत्थर फेंके, मुत्र विष्ठा फेके तो इन को सरस्वती के तट पर बतलाया गया है। किन्तु उत्तर सबकी ओर ध्यान नहीं देते थे। यह शरीर असत पदाथों इक्ष्वाकुत्रों का सम्वन्ध अयोध्या से था। जैन शास्त्रों में का घर है, ऐसा समझ कर अहंकार मम-कार का त्याग
अयोध्या को ही ऋषभदेव का जन्म स्थान माना है। करकं अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेव के समान
उघर सांख्यायन श्रौत्र सूत्र मे हिरण्यगर्भ को कौसल्य कहा
गया है। अयोध्या को कोसल देश में कहा गया है। प्रतः सुन्दर शरीर मलिन हो गया था, आदि ।
कोसल देश में जन्म लेने से ऋषभदेव को कौसल्य कहा इसी में यह भी कहा है कि वातरशन श्रमणो के धर्म
जा सकता है । इस तरह योग के वक्ता हिरण्यगर्भ के साथ का उपदेश देने के लिए उनका अवतार हा । जन्महीन
योगी ऋषभ की एकरूपता अन्वेषणीय है। ऋषभदेव जी का अनुकरण करना तो दूर, अनुकरण करने का मनोरथ भी कोई अन्य योगी नहीं कर सकता क्योकि
श्रमण-परम्परा और पुरातत्त्व जिस योगबल को ऋषभ जी ने प्रसार समझकर ग्रहण सिन्धु-घाटी के उत्खनन के सहयोगी श्री राम प्रसाद नहीं किया, अन्य योगी उसी को पाने पाने की चेष्टाए चन्दा ने अपने एक लेख में लिखा है--'मोहेजोदड़ो से प्राप्त करते हैं।
लाल पाषाण की मूर्ति, जिसे पुजारी की मूर्ति समझ लिया । जैन ग्रन्थों में ऋषभ को हिरण्यगर्भ भी कहा है गया है, मुझे एक योगी की मूर्ति प्रतीत होती है। वह क्योकि उनके गर्भ में माने पर प्रकाश से स्वर्ण की वर्षा मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए प्रेरित करती है कि हुई थी। यथा
सिन्धुघाटी में उस समय योगाभ्यास होता था पोर योगी