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________________ १७०, वर्ष २८, कि० १ अनेकान्त राजगृह में ही घटित एक और घटना है। अजात उस समय की प्रजा भी धर्म-सहिष्णु हा करती थी। शत्रु ने तत्कालीन सभी तीर्थक सें से सामञफल (धमण्य- राजाओं में श्रेणिक, कुणिक (अजातशत्र), चेटक, चण्डफल) पूछा । निगण्ठ नातपुत्त ने उत्तर में चातुर्यामसवर प्रद्योत, प्रसेनजित, अभयकुमार आदि ऐसे थे जिन्होने महाबताया।" यहाँ ज्ञातव्य है कि चातुर्याम सबर निगण्ठ वीर और बुद्ध दोनों से समान रूप से सम्पर्क बनाये रखा। नातपुत का नही था, पार्श्वनाथ का था। यही कारण है कि दोनो-जैन और बौद्ध साहित्य-- राजगह की इन घटनाओं से लगता है, महावीर और उन्हें अपना-अपना बतलाते है। महावीर और बदध के बद्ध दोनों के शिष्य परस्पर मिलते-जलते थे और वाद- व्यक्तिगत सम्पर्क बनने और बिगड़ने में इन राजानों की विवाद भी करते थे । सम्भव है, दोनो महापुरुषो का यहां भी पर्याप्त भूमिका रही है। लेख के विस्तार के भय से व्यक्तिगत सम्पर्क भी हुआ हो; जैसा उक्न उद्धरणो से इस प्रसंग को यहा उपस्थित नहीं करना चाहता। प्रतीत होता है। सूत्रकृतांग के अनुसार प्राईक कुमार (महावीर का परम शिष्य) ने शाक्यपूत्रों से वादविवाद उपतहार किया और उन्हें पराजित किया।" अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि भगवान महावीर-विषयक अन्तिम उद्धरण सामगाम सत्त मे महावीर और महात्मा बुद्ध दोनो महापुरुषों के बीच दिया गया है जिसमे पावा में महावीर के परिनिर्वत हो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत सम्पर्क बना रहा है। जाने की सूचना बुद्ध को दी गई। कुछ लोगो का कहना यद्यपि जैनागमो में एतद्विषयक सामग्री लगभग न के है कि यह सूचना वस्तुत. गोशालक से सम्बन्धित है, वराबर है, परन्तु पालि त्रिपिटक मे जो जैसा भी निगण्ठ निगण्ठ नातपुत्त से नही। परन्तु ऐमा तर्क प्रस्तुत करना। नातपुत्त के सन्दर्भ मे मिलता है, उसे हम पूर्णतः अस्वीकार युक्ति संगत नही जंचता। अभी हमने ऐसे उदधरण देखे नहीं कर सकते ; भले ही वह पक्षपातपूर्ण रहा हो। महाजिनसे दोनों महापुरुषों के अनेक वर्षावास अन्तिम समय वीर के निर्वाण-काल के विषय में भी इस सन्दर्भ में वार तक एक ही स्थान पर होते रहे। पर्याप्त विचार किया जाना चाहिए । मुझे तो ऐसा लगता है, यदि महावीर का परिनिर्वाण ५४५ ई.पू और बुद्ध समान व्यक्तिगत सम्पर्क बनाये रखने वाले राज-परिवार: कापरिनिर्वाण ५४३ ई.पू स्वीकार कर लिया जाय तो भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध से समान रूप अधिक युक्तिसंगत है। से व्यक्तिगत सम्पर्क बनाये रखने वाले अनेक राजा थे। 00 भगवान अपनी चर्या के अनुसार घर-घर में धमते और से ही खाली हाथ लोट पाते । इस चर्या में पांच मास और पच्चीस दिन पूरे हो गये । छब्बीसवें दिन भगवान् धनावह थेष्ठि के घर पहुंचे। वहां एक कुमारी देहली के बीच खड़ी थी। उसके पैरों में बेड़ी थी। सिर मंडित था। तीन दिन की भखी थी। उसके पास एक सूप था। उसके कोने में उबले हुए उड़द थे। यह राजपुत्री थी। वर्तमान में वह दासी का जीवन बिता रही थी। कुमारी ने भगवान को देखा। उसका चेहरा खिल उठा । दुख की घटायें विलीन हो गई। उसका रोमरोम पुलकित हो उठा। वह मदित स्वर में बोली--'भन्ते मेरे पास और कुछ नहीं है। ये उबले हुए उड़द हैं।' प्राप अनुग्रह करें। मेरे हाथ से पाहार लें। भगवान को प्राते देख कुमारी को लगा, वे माहार लेने को मुद्रा में हैं। किन्तु कुछ ही क्षणों में उसकी प्राशा, निराशा में बदल गयी, भगवान प्राहार लिए बिना ही मुड़ गये। उसके चेहरे पर उवासी छा गई। आँखों से प्रासू बह चले। भगवान ने सिसकियां सुनी। वे वापस मुड़े । कुमारी के हाथ से उबले हुए उड़द का पाहार ले लिया। प्राचार्य श्री तुलसी २६. दीघनिकाय, १.१.२ । ३०. तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृ. ५७-५८ ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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