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तीर्थङ्कर महावीर तथा महात्मा बद्ध : व्यक्तिगत सम्पर्क
१६९ शाक्य देश में भी जैन और बौद्घधर्म दोनो लोकप्रिय नालन्दा में महात्मा बुद्ध का जब ४२वां वर्षावास हो थे। मज्झिम निकाय में एक उद्धरण है कि शाक्य देशीय रहा था, उस समय निगण्ठ नानपुन भी वहाँ अपनी बड़ी देवदह ग्राम में महात्मा बुद्ध भिक्षुषों में कहते है कि परिषद के साथ ठहरे हा थे। तब दीर्घतपस्वी निग्रन्थ निगण्ठों का सिद्धान्त है कि व्यक्ति जो मुख, दुख या बुद्ध के पास पहुंचा। बुद्ध ने पूछा-निगण्ठ नातपुत्त अदुख, असुख का अनुभव करता है, वह सब उसके पूर्वकृत पापकर्म के लिए कितने कनों का विधान करते हैं । तपस्वी कर्मों के हेतु से । इन पूर्वकृत कर्मों का तपस्या द्वारा अन्त ने उत्तर दिया-कर्म का नही, दण्ड का विधान करना करने से और नवीन कर्मों का पाथव-द्वार बन्द हो जाने से निगण्ठ नातपुत्त का नियम है। ये दण्ड तीन प्रकार के है, भविष्य मे व्यक्ति परिणाम रहित (अनाथवी) हो जाता कायदण्ड, वचनदण्ड और मोदण्ट । इनमे कायदण्ड महाहै । परिणाम रहित होने से कर्मक्षय, कर्मक्षय से दुखाय, दोषयुक्त है। उपालि गहानि भी महावीर का भक्त था। दुखक्षय से वेदनाक्षय, वेदनाक्षय से सभी दुःख जीर्ण हो गौतम के साथ वादविवाद करने के लिए महावीर ने जाते है। इस सिद्घान्त की यहाँ अनर्गल पालोचना की उपालि को भेजा । अन्त में कहा गया कि उपालि और गई है। राजगृह मे भी बुद्ध ने निगण्ठों के इस सिद्धान्त दीघतपस्वी दोनों बुद्ध के अनुयायी हो गये। यह जानको उन्ही से सुना था और उनका अनुमोदन भी किया कर महावीर उपालि के पास गये और उससे पूछा-तुम था। यही निगण्ठ नातपुत्त के सर्वज्ञत्व की भी कट पालो- किसके शिष्य हो ? उत्तर में पालि ने बद्घ की ओर चना भगवान बुद्ध ने की है। प्रानन्द ने भी सन्दक परि- हाथ जोड़कर सकेत किया। इसके आगे तो यहां तक व्राजक से कौशाम्बी मे निगण्ठ नातपूत्त के सर्वज्ञत्व को बताया कि बुद्ध का सत्कार असह्य हो जाने पर महावीर तीव्र पालोचना की और उसे अनाश्वासिक (मन को संतुष्ट ने मुह से उष्ण रक्त उगल दिया । न करने वाला) बताया।
महात्मा बुद्ध का १७वां वर्षावास राजगह में हया इसके बाद दोनों महापुरुषों का विहार राजगह की था।" उस समय विभिन्न मतावलम्बियों ने यह जानकर और हुमा । राजगृह में निगण्ठ नातपुत्त ने अभय राजहर्ष व्यक्त किया कि इस बार अग-मगधों को प्राध्या- कुमार को गौतम के पास वादविवाद करने को भेजा और त्मिक लाभ मिलने का स्वर्ण अवसर है जो कि राजगह कहा कि गौतम से पूछो-"क्या अन्ते ! तथागत ऐसे मे पूर्ण काश्यप, मक्वलि गोसाल, अजितकेश कम्बली, वचन बोल सकते है जो दूसरो को अप्रिय-अपमानपूर्ण हों ?" पकुध कच्चायन, सजय वेलट्रिपूत्र और निगण्ठ नातवृत्त यदि "हाँ" कहे तो प्रतिप्रश्न करना कि पृथक्जन (साधावर्षावास के लिए पाये हुए है। भगवान महावीर का रण मंसारी जीव) और तथागत में क्या भेद हुना?" १६वाँ, २२वा, २४वां वर्षावास राजगह में या, यह और यदि उत्तर निपेधारक रहे तो कहना “मापने देवजैनागमों से भी ज्ञात होता है।
दत्त के लिए भविष्यवाणी क्यों की है कि देवदत्त प्रापाचम्पा में भी भ. बदध ने सभी तीर्थकरो की तपस्या यिक है, देवदत्त नैरयिक है, देवदत्त कल्पस्थ है, देवदत्त की पालोचना की, वज्जिय महित गहपति से । आलोचना अचिकित्स्य है। व्यापके इस वचन से देवदत्त को प्रसन्नोष तभी की जाती है जब उस सिद्धान्त का प्रचार अधिक हमा। गौतम ने इस प्रश्न का उत्तर दिया कि यह हो जाता है। हम जानते हैं कि चम्पा महावीर की मुर य । एकाशिक (बिना अपवाद के) दृष्टि से कहा जा सकता। विहार-भूमि रही है।
__ अन्त में अभय बुद्ध का शिष्य बन गया। २३. मज्झिम निकाय ३.१.१ ।
२६. मज्झिम निकाय २.६.७ । २४. मज्झिम निकाय १.२.४ ।
२७. म. निकाय, २.२.६ । २५. चुल्लवग्ग, ६. चलसकुलदायी सुत्त (राजगह) में भी '
सकुल उदायी परिव्राजक ने नि. नातपुत्त के सर्वज्ञत्व २८. अभयराजकुमार सुत्त, मज्झिम निकाय, १.५.८ । की मालोचना की।