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जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश
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संदेह उत्पन्न करता है, पर इसे सुनिश्चित रूप से कुछ इस मंदिर के अधिकारी यापनीय संघ (कोटि) मडुवगण नहीं कहा जा सकता"।
और पुम्यारह (संभवतः पुनागवक्षगण जैसा ही) नंदीकदंब बंशीय मृगेशवर्मन (४७५-४६० ई.) ने गच्छ के जिनन यापनीय, निग्रंथ और कर्चको को अनुदान दिया था, इनके मंदिर देव थे"। ६८० ई० का सौदति (सुगंधवत्ति) का गुरु का नाम दामकीनि उल्लिखित है । प्रागे मृगेशवर्मन्
शिलालेख भी है जो चालुक्यवंश के तैलपदेव से प्रारम्भ होता के पुत्र (४६७-६३७ ई.) ने भी कुछ ग्राम प्रनुदान मे
है। इसमे शातिवर्म और उनकी रानी चन्द कब्बी का भी दिए थे जिनकी आमदनी से पूजा प्रतिष्ठा के अनुष्ठान
विशेष उल्लेख है । शातिवम ने जो जैन नदिर बनवाया था, किए जाते थे और यापनीय साधूनों के चार माह का
उसके लिए उन्होने भूमिदान किया था। इसमे कुछ साधुओं भरण-पोषण किया जाता था। इसमें जिन गायों के के नाम दिए है जो यापनीय सघ काण्डर गण के थे। इनके नामोल्लेख है, वे है दामकीर्ति, जयकीति, बंधुसेन और नाम है बाहुबलि देव (भट्टारक), (जिनकी उपमा चद्र, कुमारदत्त । संभवतः ये चारो ही यापनीय हों। आगे कृष्ण सिंह प्रादि से की है) रविचन्द्र स्वामी, अर्हनन्दी, शुभचद्र, वर्मन के पुत्र देव वर्मन (४७५.४८० ई.) ने यापनीय
सिद्धान्तदेव, मोनिदेव और प्रभाचद्र देव आदि"। डाo सघ को एक ग्राम दान किया था जिससे मदिर की पी बी. देसाई ने होसुर (सोदत्ति, जिला वेलगाव) के सुरक्षा और दैनिक देखभाल हो सके।
एक दूसरे लेख का विवरण दिया है जिसमे यापनीय संघ
के काण्डरगण के उपदेशको (साधुग्रो, गुरुग्रो) का उल्लेख ८१२ ई. के कदंब दानपत्र में निम्न विवरण प्राप्त
है जिनके नाम है शुभचंद्र प्रथम चन्द्रकीति, शुशवद्र द्वितीय, होता है.---"राष्ट्रकूट राजा प्रभूतवर्ष ने कुछी (ली)
नेमिचन्द्र, कुमारकीति, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र द्वितीय"। प्राचार्य के शिष्य अर्ककीति द्वारा संचालित मंदिर को
___ पता चला है कि बेलगाग की दोडा वसदि में भ० स्वयं दान दिण था जो यापनीय नंदी संघ पुन्नाग वृक्ष
नेमिनाथ की प्रतिमा है जो किसी समय किले के मन्दिर मूलगण के श्री कीति प्राचार्य के उत्तराधिकारी थे (बीच
में थी। इसमें जो पीठिका लेख है, उससे पता चलता है कि में कई प्राचार्यों को छोडकर) अर्ककीर्ति ने कुन्नि गिल
यापनीय सघ के पारिसय्य ने १०१३ ई० में इस मन्दिर देश के शामक (गवर्नर) विमलादित्य का उपचार किया
का निर्माण कराया था, जिसे साहणाधिपति (संभवतः था जो शनिग्रह के दुष्प्रभाव से पीड़ित था। नौती ई के
कदम्बशासक जय के शि के दण्डनायक) की माता कत्तय्य किरइप्पाक्कम (चिगलपेट, तमिलनाड) लेख से देशवल्लभ
और जक्कव्वे ने कल्लहविळ (गोकम के पास) ग्राम की नामक एक जैन मदिर का पता चलता है जो यापनीय
भूमि दान में दी थी। उपयुक्त विवरण से ज्ञात होता है संघ और मिलगण के महावीर गुरु के शिष्य प्रमल
कि पारिसय्य साधु या गुरु नही थे अपितु कोई सामान्यमुदल गुरु द्वारा निर्मित कराया गया था" और अनुदान
जन थे जिनके यापनीय सघ से घनिष्ठ सवध रह होंगे पत्र मे पापनीय संघ के साघुरों के भरण-पोषण की भी
इसीलिए उनका विशेषतया उल्लेख किया गया है। व्यवस्था का उल्लेख है।
१०२० ई. के रढवग् लेख में स्पष्ट लिखा है कि हूविनपूर्वी चालुक्यवंश के मम्म द्वितीय ने जैन मंदिर के वागे की भूमि का दान दण्डनायक दासिमरस ने विख्यात लिए मलियपुन्डी (प्रान्ध्र) ग्राम का अनूदान दिया था। यापनीय सघ पूनागवृक्ष मूल गण के प्रसिद्ध उपदेशक 14. E.I.XX No, 7, p. 80,
19. Journal of the B.B A.A.S.X 71-72, teut 15. I.A. VI, pp. 24.7, VII pp. 33.5.
Pp. 206-7. 16. E.C.XII Gubbi 61.
20. Jainism in South India p. 165. 17. A.R.S.I.E. 1954-35, N. 22 p. 10 Delhi 19:8 २१. जिनविजय (कन्नड) जनवरी १९३१ । 18. E.I.IX No.6.