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________________ २४६, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त तैयार नहीं हूं क्योंकि वे जैन (दिगम्बर) साधु नहीं हैं। यापनीय शब्द का मूल अर्थ अपने प्राप में एक स्वतंत्र रानी नकुला देवी अपने पति के अभिप्राय को समझ गई। प्रश्न है। इसकी बहुत सी वर्तनी (हिज्जे) मिलती है जैसे वह तुरन्त ही उन साधुओं के समीप गई और उनसे यापनीय, जापनीय, यपनी, पापनीय, यापुलिय, आपुलिय, प्रार्थना की कि वे वस्त्रादि का त्याग कर निर्ग्रन्थ-वेश जापुलिय, जावुलिय, जाविलिय, जावलिय, जावलिगेय धारण कर लें । साधुओं ने रानी का अनुरोध स्वीकार कर प्रादि मादि । 'या' घातु के साथ कारण प्रत्यय जोड़कर तुरंत ही वस्त्रादि का त्याग कर दिया भोर पीछी कमण्डलु उसके भिन्न-भिन्न प्रथं निकाले गए है। तेलंग के अनसार लेकर दिगम्बर मुद्रा में राज्य में प्रवेश किया; तब तो यापनीय शब्द का अर्थ है-"बिना ठहरे सदा हो विहार महाराज भपाल ने उन साधुप्रो का बड़े ठाट बाट एवं करने वाले"।" प्रवचनसार (११.१०) में दो प्रकार के मानदार तरीके से उन साधूनों का स्वागत-सम्मान एवं गुरुषों का उल्लेख मिलता है १. पव्वज्जादायग और २. गवानी की। इस तरह यद्यपि वे साधू बाह्य तप सं निज्जावग । 'निज्जावग' का कर्तव्य होता है कि पथभ्रष्ट दिगम्बर वेश में थे पर उनके प्राचार और क्रियाकलाप साधुनों को सन्मार्ग पर पूनः स्थापित करना। वे अधीनस्थों श्वेताम्बर साधुनों जैसे ही थे। मागे चलकर इन्हीं साधुनों पर नियंत्रण रखते है तथा नवागतों का मार्गदर्शन करते ने यापनीय संघ की नीव डाली। हैं। निज्जावग का शुद्ध संस्कृत रूप निर्यापक की जगह नंदी का उपर्युक्त कथन १५वीं सदी के बाद का निर्यामक ज्यादा उपयुक्त बैठता है। जैन ग्रंथों में 'जवहै. प्रतः इसे पूर्णरूपेण अक्षरशः स्वीकार करने में बड़ी णिज्ज' शब्द का प्रयोग एक से अधिक अर्थों में प्रयुक्त सावधानी की अावश्यकता है, क्योकि इसके कुछ और भी किया हमा मिलता है। 'नायाधम्मकहानो' में इदिय जवअभिप्राय निकल सकते है। ऐसा प्रतीत होता है कि रानी णिज्जे शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ यापनीय न नकला देवी श्वेताम्बर विचारधारा की रही हो पोर उन होकर यमनीय होता है, जो यम् (नियत्रणे) घातू से बनता दिनों दक्षिण भारत मे श्वेताम्बर साधुनों को विशेष प्रादर है। इसकी तुलना 'थवणिज्ज' शब्द से की जा सकती है जो एवं प्रसिद्धि नही प्राप्त थी, क्योकि यदि इस करहाटक को स्थापनीय शब्द के लिए प्रयुक्त होता है। इस तरह जवआधुनिक महाराष्ट्र के सतारा जिला स्थित 'कहडि' नामक णिज्ज' का सही संस्कृत रूप यापनीय नही हो सकता, स्थान माना जाता है तो निश्चय ही दक्षिण भारत में प्रतः जवणिज्ज साधु (यापनीय कहलाने वाले) वे है जो श्वेताम्बर साधुओं की विशेष मान्यता न थी। प्राचार्य यम-याम का जीवन बिताते थे । इस संदर्भ में पाश्र्वप्रभु के देवसेन और रत्ननंदी के उपर्युक्त विवरणों से ऐसा प्रतीत 'चउज्जाम, चातुर्याम धर्म से यम-याम की तुलना की जा होता है कि यापनीय संघ श्वेताम्बरों के वर्गभेद के रूप मे मी उद्भत हा; भले ही ऊपर से उनका बाह्य परिवेश दिग यापनीय साधुनों के विषय में हमें कुछ विशद सामग्री म्बर साधुओ जैसा रहा हो। कुछ दिगम्बर विद्वानों की मान्यतानुसार यापनीय उपलब्ध है अतः यह आवश्यक है कि यापनीय संघ और उससे संबंधित साधुनों के विषय में, जिनका विभिन्न स्थानों जन नास्तिक वर्ग के थे। इन्द्रनंदी ने अपने नीतिसार (१०वें पद्य) मे यापनीयों को निम्न पाच कृत्रिम वों में व घटनामों से संबंध है और अधिक महत्वपूर्ण सामग्री का विवेचन किया जाए। सन्निहित किया है :गोपूच्छिकाः श्वेतवासाः द्राविडोयापनीयकाः। सम्राट खारवेल के हाथी गुफा लेख की १४ वीं, निःपिच्छकश्चेति पंचते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः॥ पंक्ति में 'यापज्ञावकेही' शब्द यापनीयों के प्रसंग में कुछ ११. देखो I.A.VII, P. 34, footnote. १३. Otherwise the expression in the नायधम्म१२. See my Paper on the meanings of Yap- कहानो cannot be properly explained. niya' in the श्री कण्ठिका मैसूर १९७२ ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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