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________________ महावीर स्वामी-स्मृति के झरोखे में १२७ एवं यक्षिणियों के वाहन एवं लांछन के विषय मे मतैक्य त्मक दष्टि से प्रति सुन्दर है। जैन धर्म में प्रतीकोपासना नहीं है । अपर जितपृच्छा के अनुसार महावीर का वर्ण की सतत प्रवाही धारा इनसे सिद्ध होती है पौर किस कांचन है। प्रकार मूर्ति-पूजन का समन्वय उम धारा के साथ हुआ है कुण्डलपुर के गजकुमार, समूचे विश्व को त्याग, यह भी विदित होता है। मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त अहिसा एव सत्य की राह दिखाने वाले, जैन धर्म के प्राण, अमोहिन द्वारा प्रदत्त मायागपट्ट की तिथि कला-समीक्षकों प्रातः स्मरणीय, चौबीसवें तीर्थकर प्रात्मवशी महावीर की ने ई० पू० में स्थिर की है । उक्त प्रायागपट्ट वर्तुलाकार प्रतिमा भारतीय शिल्पकला मे ईस्वी सन पूर्व मे निमित अर्थार्थ शिलापट्ट है जिसके मध्य भाग में भगवान महावीर प्राप्त नही होती है। इसका एकमात्र उदाहरण पायाग- की ध्यान मुद्रा मे लघु प्रतिमा दृष्टिगोचर होती है। उसके पट्ट के मध्य उत्कीर्ण प्राकृति में पाया जाता है। उत्कीर्ण चतुर्दिक जनमत के निम्नाकित प्रष्ट मागलिक चिह्न प्राकृति में भगवान महावीर ध्यानमद्रा में अकित किये उत्कीर्ण है : (१) स्वस्तिक, (२) दर्पण, (३) भष्म पात्र, गए है। (४) बेत की तिपाई (भद्रासन), (५-६) दो मछलियाँ, भगवान मावीर का समकालीन उज्जयिनी नरेश (७) पुष्प माला, (८) पुस्तक । चण्डप्रद्योत था। चण्डप्रद्योत जैन मतानुयायी था। ऐसा प्रोपपातिक सूत्र (म० ३१) मे अष्टमांगलिक चिह्नों उल्लेख प्राप्त होता है कि प्रद्योत ने महावीर की एक के नाम इस प्रकार हैप्रतिमा दशपुर (अाधुनिक मंदसौर, म० प्र०) में प्रति स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, प्ठित करने के लिए एव उसकी सेवा प्रादि के लिए बारह कलश, दर्पण तथा मत्स्य-युग्म । सौ ग्राम दान में दिए थे। चण्डप्रद्योत ने ऐसी ही एक डा. स्मिथ ने मथुरा से प्राप्त कुछ जैन मूर्तियो की और जीवन्त स्वामी की प्रतिमा बनवायी थी तथा उसने पादपीठ पर अकित सिंह को भगवान महावीर का लाछन उसकी प्रतिष्ठा उज्जैन में करवायी थी। सम्राट अशोक के मान कर उनका समीकरण महावीर से किया है। परन्तु वशज मौर्य नरेश सम्प्रति का जैन माहित्य मे वही स्थान डा. स्मिथ का यह समीकरण उचित प्रतीत नहीं होता है जो स्थान सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म में है। परि- है। इसका कारण यह है कि पादपीठ पर अकित सिह, शिष्ट पर्व के वर्णन से ज्ञात होता है कि सम्प्रति के समय मिहामन के प्रतीक है न कि महावीर के प्रतीक सिह के। उज्जयिनी मे जीवत स्वामी की प्रतिमा की रथयात्रा यदि वे महावीर के लाछन होते तो उन्हे मूर्तितल के मध्य निकली थी। यद्यपि उक्त काल की महावीर प्रतिमायें प्राज भाग मे उत्कीर्ण किया जाता, जैसा कि हम परवर्तीयुगीन तक उपलब्ध नही हुई है किन्तु साहित्यिक वर्णन से उक्त प्रतिमानो मे पाते है। विषय पर प्रकाश पड़ता है। कृषाणकालीन मथुग की कला में तीर्थंकरों के कुषाणयुगीन जैन प्रतिमाये बौद्ध मूर्तियो के ही सदश लांछन नहीं पाये जाते, जिनसे कानातर में उनकी पहचान है। मथरा के कंकाली टीले के उत्खनन से उपलब्ध अमो. की जाती थी। केवल ऋषभनाथ के स्कन्धों पर खुले हुए हिन द्वारा प्रदत्त पायागपट्र तथा तीर्थंकर प्रतिमाएँ उल्ले- केशो की लटें और सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर सर्पफणों खनीय हैं। प्रायागपट पूजा-शिलायें थी जिनकी परम्परा का प्राटोप बनाया गया है । इस प्रकार, कुषाण युग में अति प्राच्य है। ये शिलायें प्रतीकात्मक और तीर्थकर. तीर्थकरों के विभिन्न प्रतीको का परिज्ञान न हो सका था। प्रतिमा-संयुक्त दोनों प्रकार की है। जैन मायाग-पट्ट कला- विभिन्न तीर्थंकरो को पहचानने के लिए चौकियों पर ५. प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान : वासुदेव उपाध्याय, ७. परिशिष्ट पर्व, १११२३ ६४। चित्रफलक ८१। 5. free: Jain Stupa and other Antiquities of Mathura, reprint Varanasi 1969 PIS ६. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, पर्व १०, सर्ग २ । XCIII, XCIV.
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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