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________________ विज्ञान और महावीर की अहिंसा श्री शम्सुद्दीन, रायपुर एक बार एक वैज्ञानिक बहुत बड़ी भभा में विज्ञान तैरना सिखाया, किन्तु एक इन्गान की तरह पृथ्वी पर कैसे की उपलब्धियों पर प्रकाश डाल रहा था। उसने बताया रहना यह विज्ञान ने हमे नही सिखाया; और क्षण भर कि माज विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि हम के लिये पूरी सभा में सन्नाटा छा गया तथा वैज्ञानिक अपने कमरे में बैठे-बैठे हजागे लाखों मील दूर की अावाज निरुत्तर हो गया। मन मकते है. यही नहीं बहा होने वाली घटनायो को भी बात भी सच है। आज के वैज्ञानिक युग मे ससार ने पालो मे देख सकते है, मिनटों में संकटो मील की यात्रा जितनी उन्नति की है, मानवता का उतना ही अधिक कर सकते है, तेज गरमी में कमरे के भीतर शीतल हवा पतन होता दिखाई दे रहा है । अाज इन्सान, इन्सान न का आनन्द ले सकते है, तथा ठड में गरमी पैदा कर सकते रहकर मशीन का पूर्जा-मात्र रह गया है तथा उसके भीतर है। श्राज हमारा जीवन इतना आगम और मुखमय हो निहित दया, क्षमा, प्रेम, महानुभूति आदि गायब-सी हो गया है कि हम कह मकते है कि हमने स्वर्ग को पृथ्वी पर रही है। मनुष्य भौतिक सुग्व-साधनो की अधिकता के बीच उतार लिया है । इमी समय एक व्यक्ति ने बड़े होकर भी एक अजीब-सी अशाति प्रौर बेचैनी का अनुभव कर वहा-हम मानते है कि विज्ञान ने हम पक्षी की तरह रहा है। उसकी इच्छाग्रो का कोई अन्त नही दिखाई देता। अाकाश में उडना सिखाया, मछली की तरह समद्र पर एक झठी मृग-तृष्णा के पीछे वह निरंतर भटक रहा है। यही नही, प्राज इस विज्ञान ने ऐसे-ऐसे खतरनाक औजारो यक्षी ११ सुवर्ण, ३ श्वेत, १ रक्त, ६ हरित, १ पीत, का निर्माण कर दिया है जिनसे मिनटो में सारी दुनिया १ कृष्ण और १ प्रवाल वर्ण की है। का ही विनाश हो मकता है। ऐसे समय बरबस हमे विद्यादेवियो में ७ मुवर्ण, ३, मीन, २ श्वेत, २ श्याम, भगवान महावीर सरीखे महामानव का स्मरण हो पाता १ रवत और १ विद्रम वर्ण की देवी है। है जिनके उपदेश न केवल कुठित एव कराहती हुई मानवता विशेष : कृर यक्ष-यक्षियो के विशेष चिह्न होते है के लिये जीवनदान दे सकते है, वरन् विश्व को विनाश के जिनसे उनकी पहचान होती है; जैसे प्रथम गोमव यक्ष गर्न मे गिरने से भी बचा सकते है। के मस्तक पर घमंचक्र होता है। तीसरे त्रिमुख यक्ष के तीन नेत्र होते है। पांचवा तम्बरु यक्ष सप का यज्ञोपवीत अाधुनिक युग विज्ञान का युग है। इसमे भौतिक धारण करता है । तेईसवे धरणेन्द्र यक्ष के सिर पर सर्प . दृष्टि से मनुष्य अपने चरम उत्कर्ष पर पहुच चुका है। दृष्टि फण रहता है। चौबीसवे मातग यक्ष के सिर पर धर्मचक्र उसने प्रकृति पर विजय पा ली है, अनेक शारीरिक रोगो उमन प्र रहता है। पर नियत्रण कर लिया है, तथा भौतिक सुख-सम्पन्नता में इसी प्रकार, बाइसवी यक्षी पाम्रा प्राम्रवक्ष की स्वगं को भी मात दे दी है। किन्तु इतना सब होने के बाद भी आज विश्व मे शाति नही है। सर्वत्र भय, प्राशका छाया में दो पुत्रो के साथ होती है । प्रायः एक पुत्र उसकी गोद में रहता है और दूसरा बगल में खड़ा रहता है। एक एव खतरे का वातावरण बना हुआ है। आज अणुतेईसवीं यक्षी पदमावती के सिर पर विसर्पफणावली रहती शक्ति के निर्माण में होड़ लग गई है तथा प्रत्येक राष्ट्र अपने पापको दूसरो से अधिक शक्तिशाली DD बनाकर रखना चाहता है। स्वार्थ एवं महंकार से प्रेरित है ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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