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________________ १४८, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त शक्ति की इस होड ने संसार को विनाश के कगार अपने स्वार्थ साधन में लिप्त रहते है वे वास्तव में समाज पर ला कर बडा कर दिया है। इसके एक विस्फोट मात्र और मानवता की हिंसा के भागीदार है। से न केवल समूचे विश्व में ताडव फैल सकता है, वरन वैज्ञानिक यंत्रीकरण के परिणाम-स्वरूप कृषि एव मानवता के अस्तित्व को भी खतग पैदा हो सकता है। उद्योगों के उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि अवश्य हुई, किन्तु ऐमी स्थिति में भगवान महावीर के महिमा का मदेश ही इसका दुष्परिणाम यह भी हुप्रा कि बड़े कृपको और वह पतवार है जो विश्व की डूबती हुई नौका को पार उद्योगपतियों में संग्रह-वत्ति बढ़ गई। अमीर और भी लगा सकती है। अमीर होकर पूजीपति बनने लगे तथा गरीब मजदर और विज्ञान के परिणाम स्वरूप आज जितनी सम्पन्नता भी गरीब होकर मारे-मारे फिरने लगे। अभीर पीर बढ़ रही है, लोगो मे उतना ही अधिक असतोष बढ रहा गरीब का यह वर्ग-भेद अाज इतना अधिक बढ़ गया है कि है। इसका कारण लोगो में बढता हा लोभ और मोह अनेक प्रयत्नों के बावजद भी हम देश में समाजवाद की है। ज्यों-ज्यो लाभ बढ़ता है, न्यो-त्यों लोभ भी बढता स्थापना करने में असफल रहे हैं। मग्रहवृति का ही जाता है, और जब लोभ बढ़ता है तो मोह बढ़ता है और दुरिणाम है कि अधिक उत्पादन होने अथवा पर्याप्त इसका अंत होना है दुख और असंतोष में । यही कारण है मात्रा में वस्तुएँ उपलब्ध होने के बावजूद भी कृषिम कि आज सम्पन्न देशों और वर्गों में मुख-संतोष नही प्रभाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा वस्तुपों की दिखाई देता । भगवान महावीर का उपदेश है कि संतोष कीमतें पासमान छूने लगती है। से लोभ पर विजत प्राप्त करो। अपनी प्रावश्यकता से ऐसे लोगों के लिए महावीर ने अपरिग्रह का उपदेश अधिक का लोभ करना किसी अन्य को उसकी दिया है जिसका तात्पर्य है मग्रवृत्ति से दूर रहना । अावश्यकता से वचित करना है। दूसरे शब्दो में, यह उनका कहना था कि जितनी हमारी आवश्यकता है. उसकी हिंसा है। उससे अधिक अपने पास मंग्रह कन्ने का हम कोई अधिविज्ञान ने प्राज मनुष्य को इतना भौतिकवादी बना कार नही है । यदि घर में केवल दो प्राणी रहने को है तो दिया है कि वह हर वस्तु को, यहाँ तक कि मानवता को बहुत बडी कोठी बना कर अपने कब्जे में रखना उचित भी, अर्थ की तुला पर तौलने लगा है। पैसा ही पाज नही। इसी प्रकार, अधिक धन अपने पास संग्रह करके उसका भगवान है तथा उसके सामने नैतिक मूल्यो का भी रखने का अर्थ है दूसरे जरूरतमद को उससे वचित रखना। कोई महत्व नही। यही कारण है कि जल की कमी होने दूसरे शब्दों में, यह उनकी प्रायिक हिसा है। पर लोग पानी को भी बेचते है, गरीब का बच्चा तड़प- माज के वैज्ञानिक युग में बिजली की जगमगाती तडप कर मर जाता है लेकिन फीस के अभाव मे डाक्टर रोशनी तथा गगनचम्बी प्रालिकामो को देख हम भले उसके घर नहीं जाता; अकाल से पीडित निघन भूखो मर ही अपनी तरक्की का दम भरे, किन्तु यह भी हमे मानना ज.ते है किन्तु अमीर अनाज को कं ठिो मे छिपाकर होगा कि आज व्यक्ति अपने ऊंचे आदर्शो से नीचे गिर रखे रहते है । भगवान महावीर का उपदेश है कि समाज गया है। उसका व्यक्तित्व दूषित हो गया है । हर आदमी के व्यापक हित में अपने सकुचित स्वार्थों का त्याग करो। सोचता है कि मैं ही सब कुछ हू और दूसरे कुछ नहीं । मैं किसी भूखे को यदि भोजन की जरुरत है तो अपनी रोटी जो कहता है, वही उचित है और बाकी सब अनुचित । का प्राधा हिस्सा उसे दे दो। अपना प्राधा वस्त्र देकर इससे अहं की भावना बढ़ती है और मनुष्य का दृष्टिकोण किसी नगे का तन ढांक सकते हो तो उसे सहर्ष दे दो। संचित होता है। इसी के बाद उसमे अन्य दुर्गण ग्रा इस प्रकार, अपने संकुचित स्वार्थ का त्याग कर मानव- जाते है और वह पतन की ओर बढ़ने लगता है । भगवान मात्र की भलाई करना महावीर के अनमार सच्ची महावीर ने कहा कि नम्रता से ग्रहकार को तो। इससे पहिसा है। जो दूसरों को दुग्वी और पीड़ित देकर भी [शेष पृ० १५१ पर]
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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