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________________ ६६, वर्ष २८, कि० १ अनेकान्त वती नामक कथाग्रन्थ की रचना की थी । सूरसुन्दरी रिक्त उपदेशपद, उपदेशमाला, भवभावना, संवेगरंगशाला, चरिय के रचयिता धनेश्वरसूरि ने इसका प्रशंमात्मक उपदेशरत्नाकर, सीलोबएस माला, उपदेशकदलि, विवेकउल्लेख किया है। यह कथा भी हमारे दुर्भाग्य से मंजरी प्रादि अनेकानेक कथाओं का प्रणयन हुमा है, जो अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। इसका इलोक- इतिवृत्तात्मक एव उपदेशात्मक कोटि में अन्तर्भावित हो बद्ध संस्कृत सक्षिप्त रूपान्तर जिनरत्नसरि ने किया है। सकती है। इसकी कथावस्तु की योजना कुवलयमाला के माधार पर परिहासकथा की दृष्टि से धूर्ताख्यान एकमात्र उपकी गई है। लब्ध कृति है । इस कथाग्रन्थ में हरिभद्रसूरि ने महाभारत, तरंगवती, वसुदेवहिण्डी, समरा इच्चकहा, कुबलयमाला रामायण और पुराणों में वर्णित हास्यास्पद और असम्भव तथा निर्वाणलीलावती पाचो ही थाग्रन्थ उत्कृष्ट एवं घटनामों पर तीव्र-प्रहार किया है। प्रारम्भिक भारतीय अद्वितीय है। एक एक ग्रन्थ का पृथक् पृथक् परिशीलन साहित्य मे हस्य-व्यंग्यात्मक साहित्य का प्रभाव है। प्रावश्यक है। इसके अतिरिक्त रयणसेहरनिवकहा, सुर हरिभद्रसूरि, इसके प्रतिकल, जन्म से प्रतिभासम्पन्न तथा सुन्दरीचरिय और रत्नचड़कथा काव्यसौष्ठव की दृष्टि से स्वभाव से विनोदी कवि है। अपने धूर्ताख्यान के माध्यम उल्लेखनीय है। इन कथाग्रन्थों में साहित्यिकता के साथ से उन्होने भारतीय साहित्य को अमूल्य देन दी है, जो कई साथ प्रचुर सांस्कृतिक निर्देश प्राप्त होते हैं। तत्कालीन दष्टियो से अद्वितीय है। संक्षेप में प्राकृत साहित्य की धार्मिक, माथिक. सामाजिक व राजनीतिकवान अमूल्य मणियों में गाथासप्तशती, समराइच्चकहा कुवलयभी इनसे प्रकाश पड़ता है। इन ग्रन्थों का महत्व इस दष्टि माला एवं पउमचरिय के समान ही इस कृति का महत्त्वमे द्विगुणित हो जाता है। पूर्ण स्थान है। प्राकृत के प्रायः समस्त कथाकाव्य जैनमुनियों द्वारा प्राकृत कथाकाव्यों की एक कोटि लघुकथानो की है। रचित है। वसूदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला इनमें एक ही गाथा मे कोई उपदेशात्मक बात कहकर और लीलावती (जिनेश्वर सूरिकृत) आदि महाकथा-कोटि फिर उस नियम को चरितार्थ करने वाले व्यक्ति का की कथानो मे भी कथाकोशों की भाति अनेकानेक लघुजीवन-वृतान्त गद्य या पद्य मे दिया जाता है। पालिजातको कथायें अवान्तर-कथानों के रूप में भरी पड़ी है । ये प्रवातथा पंचतन्त्र, हितोपदेश प्रादि संस्कृत ग्रन्थों मे भी यही तर कथायें मलकथा से पूर्णतः सम्बद्ध तथा उसके विकास प्रणाली अपनाई गई है। इस प्रकार के लघुकथात्मक गन्थों में सहायिका है। कथा-काव्यों मे मुनियों के जीवन और का प्राकृत में भी पर्याप्त मात्रा में प्रणयन हुया है। उप. उपदेशों को प्रस्तुत करते हुए जनदर्शन का व्यापक निरूपण देशों की भरमार तथा संयम, शील, दान, तप, त्याग और है। इनके साथ ही कथाकाव्यों में विविध शास्त्री-प्रथवैराग्य की प्रबलता होने पर भी इनका काव्यत्व दबा नहीं शास्त्र, राजनीति, कामशास्त्र, ज्योतिष, धनुर्वेद, प्रायुर्वेद, है। रसों, भावों, विविधवर्णनो तथा मनोभावो के सुन्दर गारूड, तन्त्र विद्या, शकुन-अपशकुन, धातुवाद, रसवाद, चित्रण इन कथाग्रथो के गौरव मे वृद्धि करते है। इन खन्यविद्या, रत्नपरीक्षा, अश्वशिक्षा, संगीतशास्त्र, छन्द, कथाग्रंथों के अन्तर्गत अनेक कथाए ऐसी भी है, जिन्हें हम प्रहेलिका, वेश्या-जीवन, अनुरक्त-विरक्त, नारी के लक्षण इतिवृत्तात्मक या विवरणात्मक कह सकते है। कथाकोश- आदि के वर्णन हैं, जिनसे इन कवियों की बहुश्रुतता का प्रकरण, पास्यानकर्माणकोश, धर्मोपदेश मालाविवरण, बोध होता है। कथारनकोश, पाइयकहासंगहो, कूमारवालपडिबोह, जनजीवन का चित्रण होने से ये यथार्थवादी है, यथार्थमिरिविजयचंद केवलिचरिय, कथाग्रन्थों का परिगणन वादिताके दोषोंसे मुक्त तथा प्रादर्शोन्मुख है । कथाके प्रारम्भ संकीर्ण कथा में किया गया है, यद्यपि इनमें भी अनेक में पात्रों की स्वाभाविक शिथिलतामों का वर्णन है। अन्त में कथायें इतिवृत्तात्मक कोटि की हो सकती है। इनके मति- वे पात्र किसी मनिके सम्पर्क से अपने अपराधों के परिमार्जन
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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