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________________ उपाध्याय यशोविजय : व्यक्तित्व और कृतित्व यशोविजय ने वि.सं. १७१९ से १०४३ तक साहित्य यशोविजय ने गुजराती भाषा में अनेक स्तवनों, सजन किया। उन्होंने संस्कृत में ही लगभग ५०० छोटे-बड़े गीतों और वन्दनामों की रचना की है जो सब "गुर्जर प्रन्थों की रचना की । संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी साहित्य संग्रह" के दो भागों में प्रकाशित हो चुका पर उनका समान अधिकार था और उन्होने इन्ही चार है। इनका लिखा 'जस विलास' हिंदी का प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ भाषाओं में लिखा है। है । यह प्रकाशित हो चुका है और इसमें इनके ७५ पदों वि० स० १७४३ मे डभोई नगर में उपाध्याय यशो- का संग्रह है। इसके अतिरिक्त उनकी हिन्दी की कृतियां विजय का स्वर्गवास हुआ। यहाँ वि० सं० १७४५ मे 'मानन्दघन प्रष्टपदी', "दिग्पट ८४ बोल', 'साम्य शतक', प्रतिष्ठित यशोविजय जी की पादुका अब भी विद्यमान 'दूहा', 'नव निधान स्तवन', तथा अध्यात्म और भक्तिपद भी है। पं० नाथ राम जी प्रेमी ने डभोई नगर को यशोविजय का जन्मस्थान माना है। अब यह बात मान्य नहीं इन्होने अपने प्रानन्दघन अष्टपटी' नामक ग्रंथ में रही है। यशोविजय ने पूर्ण ब्रह्मचर्य और सच्ची हिन्दी के जैन सन्त आनन्दधन की स्तुति में जो पाठ पद साधुता पूर्वक जीवन यापन किया और वे गौरव के साथ बनाए थे, उन्ही का सग्रह है। कहा जाता है कि उपालगभग ६५ वर्ष जीवित रहे। श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य के ध्याय यशोविजय और प्रानन्दधन जी की भेंट भी हुई पश्चात् उन जैसे प्रकाण्ड विद्वान् वस्तुत: यशोविजय थी। प्रानन्दघन सदैव अध्यात्म रस मे मग्न रहते थे। ही थे। जब जन सम्पर्क मे पाते तो सुबोध और सुरुचिपूर्ण शैली में उपदेश देते थे। यशोविजय जी उनसे मिलना चाहते थे। यशोविजय ने मुख्य रूप से तर्क और पागम पर यशोविजय जैसा विद्वान उन्हे देख भाव विमुग्ध हुए बिना लिखा है। किन्तु व्याकरण, छन्द, अलकार और काव्य के न रह सका। प्रानन्दघन की प्रशसा मे यशोविजय द्वारा क्षेत्र में भी उनकी गति अद्भुत थी। उन्होंने टीकाए और लिखा एक पद इस प्रकार है : । भाष्य लिखे है तथा अनेक मौलिक कृतियो की रचना की है। 'खण्डन खण्ड-खाद्य' जैसे ग्रंथ की रचना उनकी "पानन्द की गत पानन्दघन जाणे । अलौकिक प्रतिभा और अगाध पाण्डित्य की परिचायक वाइ सुख सहज अचल अलख पद, है। उन्होंने जैन परम्परा के चारों अनुयोगो पर महत्वपूर्ण वा सुख सुजस बखाने ॥१॥ रचनाए की है। वे जीवन भर शास्त्रो का चिन्तन करते सुजस विलास जब प्रगटे प्रानन्दरस, रहे और नव्य शास्त्रो का निर्माण कराते रहे। उनकी प्रानन्द अखय खजाने । कृतियाँ तीन प्रकार की है-खण्डनात्मक, प्रतिपादनात्मक ऐसी दशा जब प्रगटे चित अन्तर, और समन्वयात्मक । खण्डन में वे पूर्ण गहराई तक पहुंचे है। सोहि अानन्दघन पिछानें ॥२॥ प्रतिपादन उनका सूक्ष्म और विशद है। यद्यपि उनकी इस पद मे, योगीराज मानन्दघन से मिलने तथा सभी कृतिया अभी तक उपलब्ध नही हई है तो भी जितनी प्राध्यात्मिक अध्ययन और मनन से प्राप्त प्रात्मानुभव के कृतियां मिली है। उनमे उपाध्याय जी के अगाध पांडित्य आनन्द और प्राकर्षण की झलक मिलती है। ज्ञान के और अलौकिक प्रतिभा और सुजन शक्ति का ज्ञान प्राप्त हो साथ चरित्र का मेल और पाण्डित्य के साथ प्रात्म-साक्षाजाता है। स्कार की आकांक्षा मणि-कांचन का सुयोग है। १. यह दक्षिण पूर्व रेलवे लाइन पर, बडौदा से १६ मील हास, बम्बई, सन् १९१७ ई०, पृथ्ठ ६२ । दूर स्थित एक रेलवे स्टेशन है। इसकी जन संख्या ३. मानन्दघन पद संग्रह में पृष्ठ १६४ पर छप चुकी है। लगभग ४० हजार है। यह संग्रह अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई से २. पं. नाथूराम प्रेमी : हिन्दी जैन साहित्य का इति- वि० सं० १९६६ में प्रकाशित हुमा था।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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