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१८६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
वस्त्रो से अपने अंग सजाते थे, विभिन्न प्रकार के लेप-गंध को निश्चित शुल्क या भागीदारी के आधार पर ऋण भी प्रादि भी लगाते थे।
देते थे। सार्थो के अपने यान, वाहन, चालक, वाहक, __ मनोरञ्जन के लिए नाटक, गीत, वाद्य, चित्रकला, रक्षक आदि भी होते थे । प्राचीन भारत में सार्थों की छद-रचना, चूत, जलक्रीड़ा, वृक्षारोहण, प्रामली क्रीडा भमिका की विशेष जानकारी डा. मोतीचन्द्र की पुस्तक आदि का प्रमुखता से प्रचलन था । विशेष अवसरो पर 'सार्थवाह' से मिलती है। अनेक सामूहिक महोत्सव भी होते थे। नगर-नारियां भी लेन-देन के लिए निष्क, शतमान, कार्षापण आदि का थी, उन्हें राष्ट्र से बाहर जाने की साधारणत: अनुमति व्यवहार था । मद्रानों पर जनपद, श्रेणी अथवा धामिक नहीं थी।
चिह्न अंकित हा करते थे। वाणिज्य-व्यापार पर राजपावागमन और भारवहन के लिए घोड़े, हाथी, ऊर, कीय नियन्त्रण नही था, कर-भार भी प्राय के दसवे से खच्चर, बैल, शकट, शिविका, रथ, नाव, पोत प्रादि का छठे भाग तक सीमित था । विशेष परिस्थितियो, युद्ध, व्यवहार होता था। मकान कच्चे अोर पक्के दोनो तरह भिक्ष आदि के समय यह अवश्य ध्यान रखा जाता था बनते थे। फूल की कुटिया और पर्वत-गुफापो से लेकर कि कोई अनुचित लाभ न ले सके । जगलो, दुर्गम मार्गो सतखण्डे महल तक बनते थे । मकान काठ, ईट तथा पत्थर में कही कही दस्यूदल भी सक्रिय होते थे । यो अपराध के-जिसकी जहा सुविधा होती, बनते थे । साधुग्रो के बत्त कम होते थे। आवास के लिए सघाराम, विहार, चैत्य आदि बनते थे । ।
घामिक स्थिति : तत्कालीन देश में जहा समृद्धि थी, वहा कुछ उपेक्षित दलित पौर विपन्न भी थे। उन्हे ऊँचा उठाने और समाज
इस युग में प्राचीन धार्मिक परम्पराये टूट रही थी में उपयुक्त स्थान दिलाने की दिशा में महावीर का बहुत ।
. और धार्मिक एवं सामाजिक तल पर महान परिवर्तन हुए
थे । बलि, यज्ञादि क्रियाकाण्डो का स्थान भक्ति, उपाबडा योगदान है। श्रमण सस्कृति ने मानव को समानता का मत्र दिया था। जाति और वर्ण के बदले पाचरण,
सना, सत्कर्म और सदाचार ने ले लिया था। जैन, बौद्ध थेष्ठता और पूज्यता का प्राधार बन गया था।
और वैदिक तीनो सस्कृतियाँ साथ-साथ चल रही थी, आर्थिक स्थिति :
बौद्ध सस्कृति अपेक्षाकृत नवीन थी, पर दिन-दिन इसका प्राथिक दष्टि से भी तत्कालीन भारतवर्ष मम्पन्न विस्तार हो रहा था। महावीर-निर्वाण के बाद इसका था । कृषि, पशुपालन, व्यापार, वाणिज्य, कला-कौशल में
अधिक प्रसार हा। कुछ क्षेत्रो मे इस राजकीय सरक्षण भी यह देश प्रचर प्रगति कर चुका था । प्रातरिक व्या
भी मिला था। उस समय धर्म के नाम और सिद्धातो पर पर के साथ ही विदेशों से भी जलपोतो के सहारे व्यापार
अनेक वाद रचे जाते थे। धर्म-परिवर्तन साधारण-सी बात होता था। पूर्व मे ताम्रलिस्ति और पश्चिम मे भडोच के थी। कही कही एक ही कुल परिवार के व्यक्ति अलगबन्दरगाह प्रसिद्ध थे। यहाँ से रेशमी वस्त्र, मलमल, कबल, अलग धर्मों को मानते थे। सुगन्धित द्रव्य, औषधियाँ, मोती. रत्न, हाथी दांत, लकड़ी, महावीर के काल में श्रमण-संस्कृति में श्रावक, श्राविका सोने-चादी, मिट्टी आदि के सामान विदेशो को भेजे जाते साधु, साध्वी, चतुर्विध संघ की स्थापना हुई थी। जैनों थे । स्थानीय लोग भी इनका व्यवहार करते थे। की देखा-देखी बौद्धों ने भी इसी प्रकार चतुर्विध संघ
दूर देशों या विदेशो में व्यापार-वाणिज्य के लिए कई बनाया था। महावीर के अतिरिक्त अन्य पाँच तीर्थिकव्यापारी समूह में जाते थे और मार्ग दिखाने के लिए सार्थ मखलि गोशाल, प्रकुध कात्यायन, संजय वेलट्टिपुत्र, अजित होते थे। सार्थों को मार्गों का पूरा ज्ञान होता था और केशकम्बल और पूर्ण कास्यप प्रसिद्ध थे। बुद्ध भी एक निरापद यात्रा के लिए उनका सहयोग आवश्यक अथवा समकालीन तीर्थक थे। वैदिक धर्म में भी जटिल, त्रिदण्डी, अनिवार्य था। सार्थ सम्पन्न भी होते थे, वे व्यापारियों मडित आदि अनेक आम्नाय थे । धर्मगुरुषों और साधुनों