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१९८, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य-धर्म-सूत्र,
जैन-प्रन्थों में नारी वसिष्ठ-धर्म-सूत्र, हरिवंश-पुराण प्रादि वैदिक ग्रन्थों तथा
वैदिक संस्कृति में पुत्र के जन्म को महत्व दिया गया दीघनिकाय, सुल्लावग्ग, जातक-कथा आदि बौद्ध ग्रन्थों से नारी की हीन सामाजिक स्थिति पूर्णतया स्पष्ट हो जाती
है। पितृ-ऋण से मक्ति पाने के लिए पुत्र-प्राप्ति परम है। इन ग्रन्थों ने यदा-कदा जहाँ भी नारी को सम्मानित
पावश्यक मानी गई है। परन्तु श्रमण (जैन व बौद्ध) रूप में प्रदर्शित किया है, वे नारिया केवल राजकुल,
सस्कृति में इस पर कोई प्राग्रह नही। वहाँ इसकी उपेक्षा सामन्त, श्रेष्ठि-वर्ग की कुछ नारियाँ हैं। सामान्य नारी
की गयी है । पुत्र नरक से पिता की रक्षा नहीं कर सकता
है। कर्म में प्रत्येक जीव स्वतत्र है। इसलिए उसे पिण्ड को तो वेश्या, शुद्र तथा पशु की स्थिति में रखा गया है।
तथा जल-तर्पण आदि क्रिया काण्ड की कोई आवश्यकता नही इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि वौद्ध एवं जैन युग के है। इस मान्यता से पुत्र तथा पुत्री की समानता के प्रति ग्रारम्भ तक नारी की स्थिति हीन तथा दयनीय हो दृष्टिकोण को बल मिलता है। अन्य सस्कारो मे भी नारी चुकी थी।
के व्यक्तित्व को पागमो मे सम्मान से देखा गया है। महावीर द्वारा क्रान्ति का सूत्रपात
जैन-पागमो में भी कई स्थलो पर नारी के प्रति कटु लिच्छवि गणराज्य में जन्मे महावीर इससे भली भांति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने क्रान्ति की उदघोषणा
एव दुर्भावना-पूर्ण वाक्यो का उपयोग हुआ है । इसका एक
कारण यह है कि भगवान महावीर के बाद जैन-साहित्य की और धार्मिक जड़ता, कर्मकाण्ड तथा पुरुप-प्रधान
तथा प्रागम-ग्रथ वैदिक तथा बौद्ध प्रभाव से अछूते नही समाज-व्यवस्था तथा ब्राह्मणवाद का बहिष्कार करने को
रह सके । सस्कृतियो का आदान-प्रदान एक काल में कहा । वर्ण-व्यवस्था पर सीधा कुठाराघात किया। मानव
इतना व्यापक और गहरा होता है कि कभी कभी मूल की समानता तथा सम्मान को धर्म का मूल कहा । प्राणि
मान्यता उसकी चपेट मे पूर्णतया नष्ट हो जाती है। मात्र के प्रति समता तथा प्रेम भाव की प्रेरणा दी। एकागी दृष्टिकोण और भ्रान्ति तथा हटाग्रह की अग्नि से जलते
ध्यान पूर्वक चिंतन तथा मनन करने पर ज्ञात होगा कि हए लोगो को अनेकान्त तथा स्याद्वाद का रस-पान नारी के विषय मे जो कुछ भी कहा गया है, वह मयम-पालन कराया। मानवीय गुणो की वृद्धि तथा प्रत्येक व्यक्तित्व के तथा उसकी रक्षा हेतु है। अगर पुरुष के मयम-पालन म चरम विकास का लक्ष्य रखा। इसी से नारी का भी स्त्री बाधक होती है तो उसी प्रकार नारी के सयम पालन में अभ्युदय तथा चरम विकास हुमा।
पुरुप बाधक होता है। वास्तव मे जो भी दोष है, वह पुरुष नारी को भगवान् ने प्रतिष्ठित किया। उसके मातृत्व या नारी का एक दूसरे के प्रति दृष्टिकोण तथा भावानुभूति को पूज्य बनाया। उस आत्म-कल्याण का मार्ग बतलाया। का है। जिस भाव की स्थापना की जाती है, वैसे ही रूप उस पथ पर नारी की अग्रगति के लिए भिक्षुणी तथा के दर्शन होते हैं और वैसी ही क्रिया तथा प्रतिक्रिया का प्रायिका-संघों की स्थापना हुई। उसे पुरुष के समान ही फल होता है । जैन-दर्शन की नीव गुण-पूना पर प्राधारित धामिक अधिकार मिले । जैसे-जैसे महावीर की विचार- है, इस लिए किसी भी बाह्य पदार्थ तथा व्यक्ति से, चाहे धारा फैली, वैसे-वैसे नारी का उत्साह बढता गया और वह स्त्री हो या पुरुष, साधना प्रभावित नहीं हो सकती, वह सम्मानित स्थान प्राप्त करती गई।
जब तक व्यक्ति की दृष्टि स्वयं प्रभावित न हो। भावना भगवान महावीर ने कहा कि नारी ही तीर्थकर तथा प्रधान होने से जो भी परिणाम होता है, उसका कर्ना शलाका पुरुषो को जन्म देने वाली है। उन्होंने कहा कि स्वयं जीव होता है। अन्य कोई भी उसका हित अहित, नारी त्याग की मूर्ति है और जब वह विवेक से विचरण नही कर सकता है। बौद्ध तथा जैन आगमों ने नारी को करती है, अपनी इच्छायें अल्प कर लेती है।
सात तथा चौदह रत्नों में से एक माना है।