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________________ महावीर तथा नारी ॥ श्री रत्नत्रयधारी जैन, नई दिल्ली "नारी तथा महावीर" विषय अपने आप में बड़ा स्त्री-प्राचार-सहिता एकागी रही है, जबकि पुरुष के लिए विचित्र लगता है; क्योकि जनमानस पर यह बात स्पष्ट आचार-सहिता से उसका निरकुश प्रभुत्व व्यक्त होता है। है कि वह जन्मना ब्रह्मचारी, अन्तर्मुखी, प्रात्मदर्शी तथा काव्य-ग्रन्थो में भी नारी के नख-शिख-वर्णन का अपरिग्रही थे; तब उनका नारी से क्या सम्बन्ध हो सकता बाहुल्य है; मानो मानव एवं देवो के मनोगिनोद के लिए ही नारी की सृष्टि हुई हो। उसे पुरुष के लिए भोग विलास यह भ्राति फैली हुई है कि प्राध्यात्मिक घरातल पर का अन्यतम साधन माना गया है। नायिका, गणिका, होने से सभवतया उस महामानव ने "गरी नग्कस्य वारांगना, अभिसारिका, दुती प्रादि अनेक रूपों में नारी द्वारम्" माना है। इस भ्रान्ति का प्राधार है-दिगम्बर का चित्रण इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है। इससे स्पष्ट है माम्नाय की यह मान्यता- "नारी.पर्याय से मोक्ष निरी यि स माझ कि रसिक राजा एवं गणप्रधान तथा सम्पन्न श्रेष्ठी-वर्ग नही हो सकता।" इस मान्यता को नारी के प्रति बडा उन्मत्त प्रणय-व्यापार के लिए नारी का खुलकर उपयोग अनुदार माना गया है। बुद्ध के अनुसार भी स्त्री सम्यक् । करते थे। सम्बुद्ध नही हो सकती। अन्य धर्मों में भी ऐसी मान्य- वैदिक काल में तो नारी का सामाजिक स्तर अच्छी ताएं है कि मोक्ष-प्राप्ति मे परम पुरुषार्थ हेतु पुरुष-पर्याय स्थिति में रहा परन्तु शनैः शनैः इमका ह्रास होता गया; ही अपेक्षित है या प्राध्यात्मिक उत्थान तथा तप की यहाँ तक कि स्मृति-युग मे नारी द्वारा वेद-मन्त्रो के जितनी क्रियाएँ है, वे पुरुष के शरीर-सगठन से ही सहज उच्चारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया गय।। स्वतन्त्र जीवनऔर सुलभ है। यापन उसके लिए निषिद्ध हो गया। नारी की बौद्धिक आज के परिवेश मे; जब यह वर्ष भगवान महावीर शक्ति के प्रति अवज्ञा का भाव प्रकट किया गया। नारी का २५००वा निर्वाण-वर्ष है तथा सयुक्त राष्ट्र-सघ द्वारा को 'अगुलि-भर प्रज्ञा वाली' कह कर अपमानित किया भी इस वर्ष को अन्तर्राष्ट्रीय "नारी-वर्ष" के रूप मे गया। नारी को केवल सन्तानोत्पत्ति का साधन माना मनाया जा रहा है। प्रस्तुत विषय पर चर्चा अत्यन्त गया। मातृ-सत्तात्मक समाज के स्थान पर पितृसत्तात्मक पावश्यक एवं समीचीन है। समाज की स्थापना से नारी की दशा दिन-प्रतिदिन दयजनेतर ग्रन्थों में नारी: नीय होती गई। नारी के जितने रूप ग्रन्थों में उपलब्ध रामायण, महाभारत आदि अनेक जैनेतर ग्रन्थों के होते है होते है, वे पुरुष-सत्ता से प्रभावित है। मध्यकालीन कतिपय उद्धरणो मे जहां एक ओर नारी को हीन, पतित, उद्धरणा म जहा एक प्रार नारा का हान, पातत, साहित्य मे नारी-व्यक्तित्व की मरणासन्न दशा व्यक्त पापिनी, अविश्वसनीय तथा पुरुष की सम्पत्ति कहा गया होती है । शृङ्गार-परक साहित्य ने न केवल अपने युग है, वहां देवी रूपी नारी को लक्ष्मी, सरस्वती तथा शक्ति को प्रभावित किया अपितु इसका कुप्रभाव सुदीर्घ काल का उच्चतम रूप माना गया है। यह सब होते हुए भी तक बना रहा। १. पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने। पुत्रस्तु स्थविरे भावे, न स्त्री स्वातल्यमहति ॥ -बोधायन धर्म-सूत्र, २।२।२ २. प्रजननाचं स्त्रियः मृष्टाः, सन्तानार्थं च मानवाः । - मनुस्मृति ६६६
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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