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________________ जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण २०५ अनुराहा-इया सत्तणक्खता अवरदारिया । घनिदाइया चंदिम सूरियस्स अट्ठासीइ मइग्गहा परिवारो', अर्थात् सत्तणक्खता उत्तरदारिया'' अर्थात् कृत्तिका, रोहिणी, एक एक चन्द्र और सूर्य के परिवार में, प्रवासी-प्रट्रासी मृगशिरा, पार्दा, पुनर्वसु, पुष्य और पाश्लेषा-ये सात नक्षत्र महाग्रह है। प्रश्न-व्याकरण में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, पूर्वद्वार, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु या धूमकेतु-इन नौ ग्रहों स्वाति क्षौर विशाखा-ये नक्षत्र दक्षिणद्वार, अनुराधा, के सम्बन्ध मे प्रकाश डाला गया है। ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् और श्रवण- समवायांग में ग्रहण के कारणों का भी विवेचन ये सात नक्षत्र पश्चिमद्वार एवं धनिष्ठा, शतमिषा पूर्वाभाद्र- मिलता है। इसमें राहु के दो भेद बतलाये गये हैंपद, रेवती, अश्विनी और भरणी-ये सात नक्षत्र उत्तरद्वार नित्यराहु और पर्वराह । नित्यराह को कृष्ण पक्ष और वाले हैं। समवायांग ११६, २१४, ३।२, ४१३, २९ में शुक्ल पक्ष का कारण तथा पर्वराहु को चन्द्रग्रहण का मायी हुई ज्योतिष चर्चाएं महत्वपूर्ण है। कारण माना है । केतु, जिसका ध्वजदण्ड सूर्य के ध्वजदंड ठाणांग मे चन्द्रमा के साथ स्पर्श-योग करने वाले । से ऊँचा है, भ्रमणवश वही केतु सूर्यग्रहण का कारण नक्षत्रों का कथन किया गया है। यहाँ बतलाया गया है होता है। कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराघा और ज्येष्ठा-ये पाठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ स्पर्शयोग दिन-वृद्धि और दिन-ह्रास के सम्बन्ध में भी समकरने वाले है। इस योग का फल तिथियों के अनुसार वायांग मे विचार-विनिमय किया गया है। सूर्य जब दक्षिविभिन्न प्रकार का होता है। इसी प्रकार नक्षत्रों की अन्य णायन मे निषध-पर्वत के पाभ्यंतर मण्डन से निकलता संज्ञायें तथा उत्तर, पश्चिम और पूर्व दिशा की ओर से हुआ ४४व मण्डल-गमन मार्ग से प्राता है, उस समय चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्रों के नाम और ६१/८८ महर्त दिन कम होकर रात बढ़ती है ---इस समय ६४/ उनके फल विस्तार-पूर्वक बतलाये गये है। ठाणांग में २४ घड़ी का दिन और ३६ घड़ी की रात होती है। उत्तर दिशा में ४४वें मण्डल-गमन मार्ग पर जब सूर्य पाता है, अंगारक, काल लोहिताक्ष, शनैश्चर, कनक, कनक-वितान, कनक-संतानक, सोमहित, पाश्वासन, कज्जीवग, कर्बट, तब ६१/८८ मुहूर्त दिन बढ़ने लगता है। इस प्रकार जब अयस्कर, दंदुयन, शंक, शंखवर्ण, दन्द्राग्नि, धूमकेतु, हरि, सूर्य ६३वे मण्डल पर पहुचता है, तो दिन परमाधिक ३६ पिगल, बुध, शुक्र, बृहस्पति, राह, अगस्त, मानवक, काश, घड़ी का होता है। यह स्थिति प्राषाढ़ी पूणिमा को प्राती स्पर्श, पूर, प्रमख, विकट, विसन्धि, विमल, पीपल, जटि- है। लक, अरुण, अगिल, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवास्तिक, इस प्रकार जैन आगम ग्रथों मे ऋतु, प्रयन, दिनमान, वर्द्धमान, पुष्पमानक. अकश. प्रलम्ब, नित्यलोक. नित्योदि- दिनद्धि, दिनहास, नक्षत्रमान, नक्षत्रों की विविध सनायें. चित, स्वयंप्रभ, उसण, श्रेयंकर, प्रेयंकर, प्रायंकर, ग्रहों के मण्डल, विमानों के स्वरूप और विस्तार ग्रहो की प्रथंकर, अपराजित, अरज, अशोक, विगतशोक, निर्मल, प्राकृतियों आदि का फुटकर रूप मे वर्णन मिलता है। विमुख, वितत, विऋत, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवर्तक, यद्यपि अागम गन्थो का संग्रह काल ई. सन की प्रारंभिक एकजटी, द्विजटी, करकरीक, राजगल, पुष्पकेतु एव भाव- शताब्दी या उसके पश्चात् ही विद्वान् मानते है, किन्तु केतु मादि ८८ ग्रहों के नाम बताए गए है।' समवायांग ज्योतिष की उपर्युक्त चर्चाये पर्याप्त प्राचीन हैं । इन्हीं में भी उक्त ८८ ग्रहो का कथन पाया है। "एगमेगस्सण मौलिक मान्यताओं के माधार पर जैन ज्योतिष के ३. समवायाग, स. ६, सूत्र ५. ७. बहिरामों उत्तराम्रोणं कट्ठामो सूरिए पउमं छम्मासं ४. ठाणांग, पृ. ६८-१००. प्रयमाणे चोयालिस इमे मडलगते अद्रासीति एगसीट ५. समवायांग, स. ८८.१. भागे मुत्तस दिवसखेत्तस निबुठेत्ता एयणीखेसस ६. समवायांग, स. १५.३. मभिनिवुठेत्ता सूरिए चौर चरइ। -स. ८८.४.
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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