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जैन न्याय-परिशीलन
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समय तक विकास नहीं हो सका था, उनका उन्होंने विकास प्रकलंक ने जैन न्याय की जो रूपरेखा और दिशा किया अथवा उनकी प्रतिष्ठा की। उन्होने अपने चार पथ निर्धारित की, उसी का अनुसरण उत्तरवर्ती सभी जैन न्यायशास्त्र पर लिखे है। वे है--(१) न्याय-विनिश्चय- ताकिकों ने किया है। हरिभद्र, वीरसेन, कुमार नन्दि, (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित), (२) सिद्धिविनिश्चय (स्वोपज्ञ- विद्यानन्द, अनन्तवीर्य प्रथम, वादिराज, माणिक्य नन्दि वृत्ति सहित), (३) प्रमाण-संग्रह (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित), आदि मध्ययुगीन आचार्यों ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया और (४) लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित)। ये चारो और उसे यशस्वी बनाया है । उनके मूत्रात्मक कथन ग्रंथ कारिकात्मक है। न्याय विनिश्चय में ४८०, सिद्धिवि. इन प्राचार्यों ने अपनी रचनायो द्वारा सुविस्तृत, सुप्रसानिश्चय मे ३६७, प्रमाण संग्रह मे ८७ और लघीयस्त्रय रित और सुपुष्ट किया है। हरिभद्र की अनेकान्त जयमें ७८ कारिकाएँ है । ये चारों ग्रथ बड़े क्लिष्ट और पताका, शास्त्र-वार्ता-समुच्चय, वीरसेन की तर्कबहल दुरूह हैं। न्यायविनिश्चय पर वादिराज ने, सिद्धिविनि- धवला, जयधवला टीकायें, कुनारनदि का वाद न्याय, विद्या श्चय पर अनन्तवीर्य ने और लघीयस्त्रय पर प्रभाचन्द्र ने नन्द के विद्यानन्द महोदय, तत्वार्थ श्लोकवातिक, प्रष्टविस्तृत एवं विशद व्याख्यायें लिखी है । प्रमाण-संग्रह पर सहस्री, प्राप्तपरीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यभी प्राचार्य अनन्तवीर्य का भाष्य (व्याख्या) है, जो उप- शासन-परीक्षा, युक्त्यनुशासनालकार, अनन्तवीर्य की सिद्धिलब्ध नहीं है।
विनिश्चय-टीका, प्रमाणराग्रह भाप्य, वादिराज के न्यायअकलंक ने इनमें विभिन्न दार्शनिकों की समीक्षापूर्वक विनिश्चय विवरण, प्रमाणनिर्णय और माणिक्यनन्दि का प्रमाण, निक्षेप, नय के स्वरूप, प्रमाण की संख्या, विषय, परीक्षामुख इस काल की अनूठी ताकिक रचनायें है। फल का विशद विवेचन, प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद, (३) अन्त्यकाल प्रयवा प्रभाचन्द्र काल : प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य इन दो भेदों की प्रति- यह काल जैन न्याय के विकास का अन्तिम काल है। ष्ठा, परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, इस काल में मौलिक ग्रंथों के निर्माण की क्षमता कम हो प्रागम-इन पांच गदा की इयत्ता का निर्धारण, उनका गई और व्याख्या-ग्रन्थो का निर्माण हुग्रा। प्रभाचन्द्र ने संयुक्तिक साधन, लक्षण-निरूपण तथा इन्ही के अन्तर्गत इस काल में अपने पूर्वज प्राचार्यों का अनुगमन करते हुए उपमान अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव आदि परकल्पित प्रमाणों जैन न्याय पर जो विशालकाय व्याख्या-ग्रन्थ लिखे है। वैसे का समावेश, सर्वज्ञ की अनेक प्रमाणों से सिद्धि. अनुमान व्याख्याग्रंथ उनके वाद नहीं लिखे गये । अकलंक ने लघीयके साध्य साधन अंगो के लक्षणों और भेदों का विस्तृत स्त्रय पर लघीयस्त्रयालकार, जिसका दूसरा नाम 'न्यायनिरूपण तथा कारण हेतु, पूर्वचर हेतु, उत्तरचर हेतु, सह- कुमुदवन्द्र' है और माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुग्व पर प्रमेय चर हेतु प्रादि अनिवार्य हेतुप्रों की प्रतिष्ठा, अन्यथानुप- कमल-मार्तण्ड' नाम की प्रमेयबहुल एवं तर्कपूर्ण टीकाएं पत्ति के प्रभाव से एक अकिंचित्कर हेत्वाभास का स्वीकार प्रभाचन्द्र की अमोघ तर्कणा और उज्ज्वल यश को प्रसत और उसके भेदरूप से प्रसिद्धादि का प्रतिपादन, दृष्टान्त, करती है। विद्वज्जगत् में इन टीकानों का बहत पादर है। धर्मी, वाद, जाति और निग्रहस्थान के स्वरूपादि का जन अभयदेव की सन्मति-तक-टीका और वादि-देवरि का दष्टि से प्रतिपादन, जय-पराजय व्यवस्था प्रादि कितना स्याद्वाद रत्नाकर (प्रमाणनय तत्वालोकालंकार टीका) ये ही नया निर्माण कर के जैन न्याय को न केवल समृद्ध दो टीकायें भी महत्वपूर्ण हैं । किन्तु ये प्रभाचन्द्र की तर्कपौर परिपुष्ट किया, अपितु उसे भारतीय न्यायशास्त्र मे पद्धति से विशेष प्रभावित है। वह गौरवपूर्ण स्थान दिलाया, जो बौद्ध न्याय को धर्मकीति इस काल में लघु अनन्तवीर्य, अभयदेव, देवमूरि, ने दिलाया है। वस्तुतः अकलक जैन न्याय के मध्यकाल अभयचन्द्र, हेमचन्द्र, मल्लिपण मूरि, माशाधर, भावसेनके स्रष्टा है। इससे इस काल को 'प्रकलंक काल' कहा जा विद्य, अजितसेन, अभिनव धर्मभूषण, चारुकीति, विमल. सकता है।
दास, नरेन्द्रसेन, यशोविजय आदि. ताकिको ने अपनी व्या