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________________ ९३६, वर्ष २८, कि० १ अनेकान्त नर्ते तदागमात्सिद्धयेन्न च तेनागमो विना। सुगतोऽपि मगो जाते मृगोऽपि सुगत: स्मृतः। -मीमा. श्लो. ८७। तथापि सुगतो वन्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ॥ जो सूक्ष्मादि विषयक प्रतीन्द्रिय केवलज्ञान पुरुष के तथा वस्तुबलादेव भेदाभेवव्यवस्थितेः । माना जाता है, वह पागम के बिना सिद्ध नहीं होता चोदितो दधि खावेति किमष्टमभिधावति ॥ और उसके बिना आगम सिद्ध नही होता, इस प्रकार न्यायवि. का. ४७२, ३७३, ३७४ । सर्वज्ञता के स्वीकार में अन्योन्याश्रय दोष है।' 'दधि और ऊंट को एक बतला कर दोष देना धर्मअकलंक कुमारिल के इस दूषण का परिहार करते कीर्ति का पूर्वपक्ष (अनेकान्त) को न समझना है और हुए उत्तर देते है दूषक हो कर भी वे विदूषक-दूषक नहीं, उपहास्य होते एवं यत्केवलज्ञानमनुमान विजम्भितम् । है, क्योंकि उन्ही की मान्यतानुसार सुगत भी मृग थे और नर्ते तदागमात् सिद्धयेत् न च तेन विनाऽगमः ॥ मृग भी सुगत हुआ है। फिर भी सुगत को वन्दनीय और सत्यमर्थबलावेव पुरुषातिशयो मतः। मृग को भक्षणीय कहा जाता है और इस तरह पर्यायभेद प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥ से सुगत में वन्दनीय-भक्षणीय की भेदव्यवस्था तथा -न्यायवि. का. ४१२, ४१३। सुगत व मृग में एक चित्तसन्तान (जीवद्रव्य) की अभेद'यह सच है कि अनुमान द्वारा सिद्ध केवलज्ञान रामि केवलज्ञान व्यवस्था की जाती है, इसी प्रकार वस्तुबल (पर्याय और (सार्वज्ञय) प्रागम के बिना और पागम केवलज्ञान के द्रव्य की प्रतीति) से सभी पदार्थों मे भेद और अभेद की बिना सिद्ध नहीं होता, तथापि उनमें अन्योन्याश्रय दोष व्यवस्था है । अतः किसी को 'दही खा' कहने पर वह ऊंट नहीं है क्योंकि पुरुषातिशय-केवलज्ञान अर्थबल-प्रतीति- को खाने के लिए क्यो दौड़गा, क्योकि सत्-द्रव्य की अपेक्षा वश से माना जाता है और इसलिए बीजांकुर के प्रबंध- अभेद होने पर भी पर्याय की अपेक्षा उनमे भेद है। अतसन्तान की तरह इन (केवलज्ञान और पागम) का प्रबन्ध एव वह भक्षणीय दही (पर्याय) को ही खाने के लिए (सन्तान) प्रादि कहा गया है।' दौड़ेगा, अभक्षणीय ऊंट (पर्याय) को खाने के लिए नही। यहाँ स्पष्ट है कि समन्तभद्र ने अनुमान से जिस यही वस्तु-व्यवस्था है। भेदाभेद (अनेकान्त) तो वस्तु का केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की सिद्धि की थी, कुमारिल ने स्वभाव है, उसका अपलाप नही किया जा सकता। उसी में अन्योन्याश्रय दोप दिया है। प्रकलंकदेव ने सहेतुक यहाँ प्रकलक ने धर्मकीति के प्राक्षेप का शालीन उपउसी दोष का परिहार किया और सर्वज्ञता तथा प्रागम हा स द्वारा बड़ा ही करारा उत्तर दिया है। बौद्धदोनो को अनादि बतलाया है। परम्परा मे सुगत पूर्व जन्म मे मृग थे, तब वे भक्षणीय थे (ख) धर्मकीति का स्याद्वाद पर निम्न प्राक्षा है - और जब वही मृग सुगत हुमा तब वह भक्षणीय नही रहा; सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृते. । वन्दनीय बन गया। इस प्रकार एकचित्त सन्तान की अपेक्षा चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति ॥ उनमें अभेद है और मृग तथा सुगत दो पर्यायों की दृष्टि -प्रमाणवा. १.१८३ ।। से भेद है। इसी प्रकार जगत् की प्रत्येक वस्तु इस भेदाभेद 'यदि सब पदार्थ उभयरूप-अनेकान्तात्मक है तो की व्यवस्था का अतिक्रमण नहीं करती। अकलक ने धर्मउनमे भेद न रहने के कारण किसी को "दही खा" कहने कीति के प्रारोप का उत्तर देते हुए यहाँ यही सिद्ध किया पर वह ऊट को खाने के लिए क्यो नही दौड़ता।' है। इस तरह अकलंक ने दूषणोद्धार का कार्य बड़ी योग्यता धर्मकीर्ति के इस पाक्षेप का सबल उत्तर देते हुए और सफलता के साथ पूर्ण किया है। अकलंक कहते है - (२) नव-निर्माण : वध्यष्ट्रादेरभेवत्वप्रसंगादेकचोदनम् । अकलंक देव ने दूसरा महत्वपूर्ण कार्य नव-निर्माण का पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः ॥ किया। जैन न्याय के जिन आवश्यक तत्वों का उनके
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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