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________________ जैन न्याय-परिशीलन २३५ न्याय-अथ रचे गए होगे", क्योंकि एक तो उस समय का शास्त्रार्थ का अग मानना इस काल की देन बन गया"। दार्शनिक वातावरण प्रतिद्वन्द्विता का था। दूसरे, जैन क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शन्यवाद, विज्ञानवाद आदि विद्वानों मे धर्म और दर्शन के ग्रथों को रचने को मुख्य पक्षो का समर्थन इम काल में धड़ल्ले से किया गया और प्रवृत्ति थी। बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित (ई० ७वी, ८वी कट्टरता से इतर का निरास किया गया। शती) और उनके शिष्य कमलशील (ई० ७वी, ८वी प्रकलक ने इस स्थिति का अध्ययन किया और सभी शती) ने तत्वसंग्रह एवं उसकी टीका में जैन ताकिको के दर्शनो का गहरा एव मुक्ष्म अभ्यास किया। इसके लिए नामोल्लेख और बिना नामोल्लेख के उद्धरण देकर उन्हे काची, नालन्दा ग्रादि के तत्कालीन विद्यापीठो मे उनकी आलोचना की है। परन्तु वे ग्रंथ आज उपलब्ध प्रच्छन्न वेप में रहना पडा। समन्तभद्र द्वारा स्थापित नहीं है । इस तरह इस आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल स्याद्वादन्याय की भूमिका ठीक तरह न समझने के कारण में जैन न्याय की एक योग्य और उत्तम भूमिका तैयार दिङ्नाग, धर्मकीति, उद्योतकर, कुमारिल मादि बौद्धहो गयी थी। वैदिक विद्वानो ने दूषित कर दी थी और पक्षाग्रही दष्टि २. मध्यकाल अथवा प्रकलंक काल : का ही समर्थन किया था । ग्रत प्रकलक ने महाप्रयास उक्त भूमिका पर जैन न्याय का उत्तुग और सर्वांग करके दो अपूर्व कार्य किए ----एक तो स्थाद्वाद न्याय पर पूर्ण महान प्रासाद जिस कुशल और तीक्ष्ण-बुद्धि ताकिक- मारोपित दूषणो को दूर कर उसे स्वच्छ बनाया" और शिल्पी ने खड़ा किया, वह है अकलक । प्रकलक के काल दूसरा कितना ही नया निर्माण किया। यही कारण है कि में भी समन्तभद्र की तरह जबर्दस्त दार्शनिक मठभेड हो उनके द्वारा निर्मित महत्वपूर्ण ग्रथो मे चार ग्रथ तो केवल रही थी। एक तरफ शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि, प्रसिद्ध न्यायशास्त्र पर ही लिखे गए है। यहा अकलक के उक्त मीमांसक कुमारिल, न्यायनिष्णात उद्योतकर प्रभति दोनो कार्यों का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है -- वैदिक विद्वान अपने पक्षो पर आरूढ थे, तो दूसरी ओर १. दूषणोद्धार : धर्मकीति और उनके तर्कपटु शिष्य एवं व्याख्याकार यो अकलक ने विभिन्न वादियो द्वारा दिए गए सभी प्रज्ञाकार, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि प्रादि बौद्धताकिक अपने पक्ष दूपणो का परिहार कर उनके सिद्धान्तो की कड़ी समीक्षा पर दृढ थे। शास्त्रार्थों और शास्त्र-निर्माण की पराकाष्ठा की है। किन्तु यहा उनके दूपणोद्धार और समीक्षा के थी। प्रत्येक दार्शनिक का प्रयत्न था कि वह जिस किसी केवल दो स्थल प्रस्तुत किए जाते है --- तरह अपने पक्ष को सिद्ध करे और परपक्ष का निरा- (क) प्राप्तमीमासा मे समन्तभद्र" ने मुख्यतया प्राप्त करण कर विजय प्राप्त करे । इतना ही नही, परपक्ष को की सर्वज्ञता और उनके उपदेश ग्याद्वाद की सिद्धि प्रसद् प्रकारो से पराजित एवं तिरस्कृत भी किया जाता की है पीर-केवलज्ञान और स्यादाद में साक्षात पा। विरोधी के लिए 'पशु', 'अहीक' जैसे शब्दो का प्रयोग (प्रत्यक्ष) एव असाक्षात् (परोक्ष) पर्वतत्वप्रकाशन का करके उसे और उसके सिद्धान्तो को तुच्छ प्रकट किया भेद बतलाया है"। कुमारिल ने मीमासारलोकवातिक मे जाता था। यह काल जहाँ तक के विकास का मध्याह्न सर्वज्ञता पर और धर्मकीति ने प्रमावातिक मे स्याद्वाद माना जाता है: वहाँ इस काल में न्याय का बड़ा उपहास (अनेकान्त) पर प्राक्षेप किए है : कुमाग्लि कहते है--- भी हुमा है। तत्व के सरक्षण के लिए छल, जाति और एवं यः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । निग्रह-स्थानों का खुल पर प्रयोग करना और उन्हे सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ।। ३०. श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ५४॥६७ मे समति- ३२. न्यायविनिश्चय की कारिका २, जो पहले फुटनोट में सप्तक नाम के एक महत्वपूर्ण तर्क ग्रंथ का उल्लेख है, पा चुकी है। जो प्राज अनुपलब्ध है। ३३. प्राप्तमी. का. ५ और ११३ । ३१. न्यायसू. १३१०१, ४।२।५०; शरा२,३,४; आदि। ३४. वही, का. १०५। .
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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