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________________ २३४, वर्ष २८, कि० १ मनकान्त है। समन्तभद्र ने 'नययोगान्त' सर्वथा, 'नयनय-विशारदः अनित्य आदि पक्षों के आग्रह को भी समाप्त कर उन्हें जैसे पदप्रयोगों द्वारा सप्तभग नयो से वस्तु की व्यवस्था वास्तविक सिद्ध किया है। उनका कहना था कि इतर होने का विधान बनाया और "कथचित सदेवेष्ट ५ "सदेव पक्ष के तिरस्कारक 'सर्वथा" के आग्रह को छोड कर उस सर्व 'को' नेच्छेत् स्वरूपादि-चतुष्टयात्" जैसे वचनों द्वारा पक्ष के संग्राहक "स्यात्' के वचन मे वस्तु का निरूपण उस विधान को व्यवहृत किया है। करना चाहिए। इस निरूपण में वस्तु और उसके सभी उदाहरण के लिए हम उनके भाववाद और प्रभाववाद धर्म सुरक्षित रहते हैं। एक-एक पक्ष सत्यांशों का ही के समन्वय को उनकी प्राप्तमीमासा से प्राप्त करते हैं निरूपण करते है, सम्पूर्ण सत्य का नहीं। सम्पूर्ण सत्य का वस्तु कथंचित् भावरूप ही है, क्योकि स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र निरूपण तभी सम्भव है जब सभी पक्षो को आदर दिया स्वकाल भोर स्वभाव से वह वैसी ही प्रतीत होती है। जाए-उनकी उपेक्षा न की जाए। समन्तभद्र" ने स्पष्ट यदि उसे सब प्रकार से भावरूप माना जाए, तो प्रागभाव, घोषणा की कि निरपेक्ष--इतर तिरस्कारक पक्ष-सम्यक प्रध्वंमाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव-इन चार नही है, सापेक्ष-इतरसंग्राहक पक्ष ही सम्यक् (सत्य प्रभावों का प्रभाव हो जाएगा, फलतः वस्तु अनादि, जाएगा. फलतः वस्त प्रताडि प्रतिपादक) है। अनन्त, सर्वात्मक और स्वरूप-रहित हो जाएगी। अतः प्राचार्य समन्तभद्र ने प्रमाणलक्षण, नयलक्षण, सप्तवस्तु स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा भावरूप ही है । इसी तरह भंगीलक्षण, स्याद्वादलक्षण, हेतुलक्षण, प्रमाण-फल व्यवस्था, वस्तु कथंचित् अभावरूप ही है, क्योकि परद्रव्य, परक्षेत्र, वस्तुस्वरूप, सर्वज्ञसिद्धि प्रादि जैन न्याय के कतिपय अंगोंपरकाल और परभाव से वैसी ही अवगत होती है। यदि प्रत्यंगों का भी प्रतिपादन किया, जो प्रायः उनके पूर्व नहीं उसे सर्वथा अभावरूप ही स्वीकार किया जाए तो विधि हुआ था अथवा स्पष्ट था। अत: जैन न्याय के विकास रूप में होने वाले मारे ज्ञान और वचन के व्यवहार लुप्त के आदिकाल को समन्तभद्रकाल कहना सर्वथा उचित है । हो जायेंगे और जगत् अन्ध एवं मूक बन जाएगा। अतः समन्तभद्र के इस महान कार्य को उत्तरवर्ती श्रीदत्त, पूज्यवस्तु परचतुष्टय की अपेक्षा से प्रभावरूप ही है। इसी पाद, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति, पात्रस्वामी प्रभति जैन प्रकार वस्तु कथचित् उभय रूप ही है, क्योकि क्रमश. दोनों ताकिकों ने अपनी महत्वपूर्ण रचनात्रों द्वारा अग्रसर विवक्षाएँ होती है । वस्तु कथचित् प्रवक्तव्य ही है, क्योकि किया। श्रीदत्त ने, जो वेसठ वादियों के विजेता थे, एक साथ दोनों विवक्षाएं सम्भव नही है । इन चार भंगों जल्पनिर्णय ; पूज्यपाद ने सार-संग्रह; सिद्धसेन ने सन्मति (तत्तद् धर्म के प्रतिपादक उत्तर-वाक्यो) को दिखला कर मल्लवादी ने द्वादशार नयचक्र सुमति ने सन्मति-टीका; वचन की शक्यता के आधार पर समन्तभद्र ने अपुनरुक्त पात्रस्वामी ने त्रिलक्षण-कदर्थन जैसी ताकिक कृतियों को तीन भंग (तीन धर्म के प्रतिपादक तीन उत्तरवाक्य) और रचा है। दुर्भाग्य से जल्पनिर्णय, सारसंग्रह, सन्मतिटीका योजित करने की सूचना देते हुए सप्तभगी-योजना प्रदशित और त्रिलक्षण-कदर्थन आज उपलब्ध नही है, केवल उनके की है । इस तरह समन्तभद्र ने भाव (सत्ता) और प्रभाव उल्लेख मिलते है। सिद्धसेन का सन्मति और मल्लवादी (प्रसत्ता) के पक्षो में होने वाले प्राग्रह को समाप्त कर का द्वादशारनयचक्र उपलब्ध है, जो समन्दभद्र की कृतियों दोनो को वास्तविक बतलाया और दोनो को वस्तुवर्म के प्राभारी हैं। निरूपित किया। इसी प्रकार उन्होने द्वैत-अद्वैत, नित्य- हमारा अनुमान है कि इस काल में और भी अनेक २२. प्राप्तमी० १४॥ २३. वही, का० २३ । २४. प्राप्तमी० का० १४ । २५. वही, १५। २६. वही, का. ६, १०, ११, १२, १४, १५ । २७. वही, २०, २२, २३ । २८. स्वयम्भू. १०१, १०२ । २६. प्राप्तमी. १०८, स्वय. ६१, युक्त्यनुशा. का. ५१ ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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