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भारतीय संस्कृति को जैनकला का योग-दान
श्री नीरज जैन, एम. ए., सतना (म०प्र०) भारतीय संस्कृति का विकास अपनी जिस लम्बी सवा दो हजार वर्ष पूर्व-तीसरी मती ई. पू. से यात्रा को पार करके अपने वर्तमान तक पहुंचा है, उस मिलना प्रारम्भ होते हैं । इसी समय से ही हमें जैन स्थायात्रा की कथा बड़ी रोचक है। संस्कृति के सन्दर्भ में पत्य तथा मूर्तियां बड़ी संख्या में प्राप्त होती है। अवशेषों भारतवर्ष को हम एक बड़े भारी उपवन की तरह समझ सकते हैं। उपवन की शोभावृद्धि में हर पौधे का, प्रत्येक मोहनजोदड़ो के अवशेषों की गणना नहीं कर रहे क्योंकि लता का और यहां तक कि धरती की दूब का भी महत्वपूर्ण अभी तक उस कला का न तो पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ा जा योग होता है। दूब, लता, पोषे पौर वृक्ष अपने भाप में सका है और न उस काल की लिपि ही पढ़ी जा सकी है। उपवन नहीं कहे जा सकते, किन्तु इनका समूह सहज ही तो भी, संन्धव सभ्यता के अवशेषों में हमें पशुपों में एक उपवन का नाम पा जाता है और उसकी शोभा सुषमा विशाल स्कन्ध युक्त बृषभ तथा एक जटाधारी योगी का का भागीदार बन जाता है । इसी प्रकार भारतीय संस्कृति प्रकन-वहां प्राप्त हुए हैं । वृषभ तथा जटाजूट के कारण के विकास में कला की जिन विधामों का और कला के हम योगी की प्रतिमा को प्रथम जैन तीर्थकर मान सकते जिन प्रकारों का योगदान है, वे सब उसकी महानता के हैं। यहां से प्राप्त अवशेषों में एक धड़ भी है जो खड्गाभागीदार हैं।
सन है तथा स्पष्ट ही जैन-मूर्ति से मिलता-जुलता है । भारतीय संस्कृति के विकास की इस प्रक्रिया में जनों
वर्तमान प्रमाणों के प्राधार पर यदि हम तीसरी शती का बहुमुखी योगदान रहा है। पाहे वह साहित्य का क्षेत्र रहा हो, चाहे ललित कलामों की किसी भी विद्या का
ई०पू० के काल को भारतीय मूर्तिकला के उद्भव का
प्रारम्भ मानें तो हमे ज्ञात होता है कि प्रारम्भ से ही क्षेत्र रहा हो। मादिम युग की भित्ति-चित्रकला से लेकर परवर्ती काल के पाण्डुलिपि-चित्र-फलकों तक तथा ई०पू०
भारतीय मूर्तिकला के उद्भव और विकास की इस यात्रा के स्तूपीय वास्तु शिल्प से लेकर, शिलोत्कीर्ण गुफा मन्दिरों
में जैन कलाकारों का योगदान उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण
रहा है। भारतीय मूर्तिकला की कोई ऐसी परम्परा या को दुर्गम राह से होते हुए परवर्तीकाल के गगनचुम्बी,
विधा नहीं है, जिसका सम्पूर्ण और सही प्रतिनिधित्व जैन शिखर शोभित प्रलंकृत मंदिरों तक और शुगकालीन
कलावशेषों में प्राप्त न होता हो। यह बात केवल विविमायागपट्ट की प्रतीक प्रतिमानों से लेकर कुण्डलपुर के
धता पर ही नहीं, बहुलता पर भी लागू होती है। उत्तर बड़े बाबा और श्रवणवेलगोल के गोम्मतेश्वर तक भार
से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक प्रायः समस्त देश में तीय कला के विकास में सर्वत्र जैन कलाकार अपना
प्रत्येक काल का प्रतिनिधित्व करने वाले जैन शिल्पावशेष महत्वपूर्ण योगदान बड़ी सक्षमता के साथ अर्पित करता
इतनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है कि उनके माध्यम से दिखाई देता है।
भारतीय मूर्तिकला का सर्वांगीण अध्ययन किया जा सकता इस छोटे से लेख में हम भारतीय संस्कृति को जैन
है। नागरी लिपि के क्रमिक विकास का अध्ययन किया मूर्तिकला और पुरातत्त्व के योगदान का ही एक संक्षिप्त
जा सकता है। गुर्वावली तथा गच्छ और गण परम्परा में लेखा-जोखा प्रस्तुत करेंगे।
भनेक नये नाम जोड़े जा सकते हैं पौर जैन कथा साहित्य हमारे देश में मूर्तिकला के अवशेष तथा प्रमाण पान के कतिपय सर्वथा नवीन पाख्यानों का उद्घाटन किया