________________
माहिसा : प्राचीन से वर्तमान तक
माधार पर हम ऐसे निष्कर्ष निकाल सकते हैं, जो अहिंसा दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न है। गीता के प्रति प्रसिद्य प्रसंग के विकास में महत्वपूर्ण साबित होंगे।
को ही लें, मर्जन द्वारा प्रारम्भ में जिस उत्कृष्ट कोटि की महिंसा के सम्बन्ध में किसी निष्कर्ष पर पहचने के त्यागपूर्ण अहिंसा-वृत्ति का उल्लेख कराया गया है और लिए श्रमण ब्राह्मणों द्वारा अहिंसा या हिंसा की श्रेष्ठता
उसके जवाब में पूरी गीता द्वारा अहिंसा के गुण मनाऔर उपयोगिता सिद्ध करने के लिए काव्य, कथा, पुराणों
सक्ति से समन्वित क्षात्रधर्म और हिंसा को श्रेष्ठ रूप में और जातकों में लिखित ऐतिहासिक, अर्घ ऐतिहासिक या
खड़ा किया गया । इस प्रकार के प्रसंगों के सूक्ष्म अध्ययन मनतिहासिक घटनामों के संयोजन करने का जो भावा
से हम केवल अपनी संस्कृति को ही नहीं पहचानेंगे, पपितु त्मक एवं कलात्मक प्रयास किया गया है, उससे भारतीय ।
उससे हम हिंसा अहिंसा के मूलभत प्रश्नों को लेकर संस्कृति के हिंसा-अहिंसा-प्रधान पक्षों पर महत्वपूर्ण
भाधुनिक सन्दर्भ में भी सोचने में सहायता ले लेंगे। आलोक पड़ता है। उससे दोनों पक्षों की समन्वयात्मक भारतीय जीवन में महिंसा के सम्बन्ध में हजारों प्रवृत्ति का भी अध्ययन होता है। इसमें महाभारत के वर्षों से अन्तः शोध तथा व्यावहारिक प्रयोग चल रहे हैं, भनेकानेक स्थल जैसे श्रीमदभगवत गीता प्रादि, अश्वघोष, किन्त अभी तक वे अपनी प्रयोगावस्था में ही हैं। किसी कालिदास के काव्य-नाटक, आर्य शूर, सुबन्धु, वाण के प्रयोग को दर्शन की कोटि में लाने के लिए यह प्रावश्यक काव्य सहायक होगे । इसी प्रकार प्राकृत काव्य और है कि विभिन्न प्रयोगों और मान्यताओं के आधार पर अन्य जैन ग्रन्थो में पउम चरिय, रयणचूडरायचरिय, विचार प्रतिफलित हों, अथवा वे विचार प्रयोगो से समनिशीथ चूणि, उपदेशमाला, कथाकोश आदि, इस प्रकार थित एव परीक्षित हो । भारतवर्ष ने इस विषय में जो के अध्ययन में उपयोगी है । उदाहरण स्वरूप व्याघ्री प्रभत अनभव प्राप्त किए है, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के जातक के अादर्श को लें-बोधिसत्व ने दूर से भूख से तड़- लिए उनका उपयोग होना चाहिए । इसी दृष्टि से कुछ फड़ाती व्याघ्री को तत्काल प्रसव से पैदा हए अपने ही बच्चों ऐतिहासिक और सास्कृतिक तथ्यो की ओर ध्यान आकृष्ट
को खाते जाते हुए देख, अपने अनुगामी शिष्य को दूसरे किया गया। किन्तु यह सब अहिंसा का बहिरंग स्वरूप मार्ग चल कर भागे प्रतीक्षा करने के लिए भेज कर बोधि- है। उसका अन्तरग उसके अपने अन्दर का ही संगत सत्व स्वय अपने को ही समर्पित कर व्याघ्री के बच्चों को विकास है, जो विशेष रूप से मानसिक साधना का और अपने शिष्य को बचा लेते है । ढंढते हए शिष्य ने क्षेत्र है। इस अन्तरग विवेचन से यह देखा जा सकता है कि अन्त मे गुरु की कुछ हड्डियाँ ही प्राप्त की। इस अहि- प्राचीन भारत के मनीषी उनकी चारित्रिक उत्क्रान्ति सक प्रादर्श के जवाब मे कालिदास ने रघवश मे गुरु की अहिंसा के विकास की किस मंजिल तक पहुंची थी, मागे गाय नन्दिनी को बचाने के लिए व्याघ्र के समक्ष अपने चलकर महात्मा गांधी के युगान्तरकारी प्रयासों से उसमें को समर्पित न करके क्षत्रिय धर्म के अनुसार दिलीप ने क्या प्रगति हुई । इससे हम अहिंसा के भविष्य की संभावबाण खीचा, किन्तु तरकस से हाय सट जाने के कारण नाएं पूरी तरह से ज्ञात भी कर सकते हैं। स्वयं अपने को ही अर्पित कर देना चाहा । इस घटना
00 की पूरी संरचना, और वहां के कथोपकथन से क्षात्र धर्म की श्रेष्ठता और हिंसा की कथंचित उपयोगिता स्पष्ट की
अध्यक्ष-पालि एवं बौद्ध-दर्शन विभाग, जाती है। अश्वघोष मौर कालिदास के सभी काव्य इस
वाराणसेय मंस्कृत विश्वविद्यालय, दृष्टि से वाद-प्रतिवाद के समान है। महाभारत भी इस
बाराणसी-२