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________________ १७६, वर्ष २८, कि०१ प्रनेकान्त शम, समता और शांति ऐसी समान मान्यताएं थी जिन सैकड़ों अनुयायियों को स्वयं अहिंसक प्राचरण पर अहिंसा का विकास सम्भव होता। ब्राह्मणो का एवं व्यवहार का प्रशिक्षण दिया, जो हिंसक समाज मे झकाव सुख और व्यवस्था की ओर होने से उनका विरोध पहंच कर सद्धर्म का प्रयास करें तथा मरणान्त अपनी विषमता, युद्ध या अशान्ति से नहीं था । अतः अहिसा अहिंसक वृत्ति को न छोड़ें । बद्ध का कहना था कि दोनों की तरफ उनका आकर्षण तब तक नहीं हुआ, जब तक तरफ से डण्डे और भाले चलते हों, उनकी चोट से अग यह संभावना खड़ी नही हो गयी कि अहिंसा भी यथासभव अंग छिद गया हो, उस पर भी हमारे अनुयायी के मन सुख और व्यवस्था का साधन बन सकती है। श्रमण जिस में दौस (द्वेष) या जाए तो वह धर्मशासन की रक्षा नहीं समाज में रहते थे, वह बड़ा ही विषम और कोलाहलपूर्ण कर सकता । इस परिस्थिति में पड़ा हुआ व्यक्ति हिसक था, उसमे समता और शान्ति मूलक व्यवस्था आवश्यक को यह शिक्षा दे, 'न चेव नो चित विपरिणत भविस्सति थी, अतः उनके लिए यह आवश्यक हुआ कि वे व्यक्तिगत न च पापिक वाचं निछारेस्साम, हितानुम्मी च विहिस्साम अहिंसा का समाजोन्मुख प्रयोग करें। जीवन की इन मेतचित्ता, न दोमान्तरा (मज्झि ककचूपम सुत्त) दो दोनों धाराओं के कारण शताब्दियों तक हिंसा और सीमानो मे स्थिति नदी के पानी को लेकर लिच्छवि और अहिंसा के सामर्थ्य-असामर्थ्य तथा धर्म अधर्म के सम्बन्ध बज्जियों के बीच होने वाले सर्प को बुद्ध द्वारा बचाने में ऊहापोह एवं शास्त्रार्थ होता रहा। यह कार्य विचार का प्रयास, उनके द्वारा अङ्गुलिमाल जैसे भयकर और माधना के क्षेत्र में ही नहीं, प्रत्युत सामाजिक और डाकृमो के सुधारने का प्रयत्न, अहिमक प्रयोगों की सफव्यावहारिक क्षेत्र मे भी हुआ। लता का निदर्शन है। ऐसी घटनाग्रो का वैज्ञानिक अध्ययज्ञपि अहिसा के विकास की दृष्टि से अब तक भार यन करके हिसा-शक्ति की सभावनाएं समझी जानी तीय इतिहास का परिशीलन नहीं किया गया है, तथापि चाहिए। इस प्रकार के अध्ययन की पर्याप्त सामग्री विकीर्ण गिलती यह जानने की बात है कि बौद्ध तथा जैन धर्मों के अनु. है। अति प्राचीनकाल में जैनो में नेमिनाथ, पार्श्वनाथ यामी गणतन्यो और राजाओं द्वारा समाजसुधार और और महावीर द्वारा किए प्रयोगों का संग्रह होना चाहिए। धर्मप्रचार का कौन सा अहिपक मार्ग अपनाया गया था, कहा जाता है कि यदुवंशी नेमिनाथ के विरोध से विवा जिससे कहीं भी विपक्षियों के खून का एक कतरा भी नहीं हादि उत्सवों में होने वाले पशनो का बघ और मत्स्य गिरा और शताब्दियों शताब्दियो तक प्रजा पर श्रमण मांस सुरा आदि से संबन्धित फिजूलखर्ची बन्द हुई थी। विचारो का प्रभाव छाया रहा। देश में ही नहीं, सुदूर काशीराज अश्वपति के कुमार पार्श्वनाथ ने उस समय विदेशों तक संबडों और हजारो की संख्या मे निहत्थे प्रचलित तपस्यानों द्वारा होने वाली अनेकानेक प्रकार की भिक्ष पहच कर धर्म का साम्राज्य स्थापित कर सके थे। हिंसानों का विरोध किया। महावीर स्वामी के कार्यों का उसके पीछे एक ऐमी अदम्य शक्तियों का संकेत है, जो साक्ष्य प्राचीन जैनागमों में सुरक्षित ही है। हजारो कुर्बानियों के बाद भी उसकी प्रेरणा से धर्म दूत भगवान बद्ध अहिसात्मक प्रान्दोलन के प्रवर्तकों मे आगे बढ़ते गये । हमें एशिया के विभिन्न देशों के ऐतिमहानायक है, जिन्होने व्यक्ति, समाज और धर्म के क्षेत्र हासिक साक्ष्यो के आधार पर उस कार्य-विधि का अध्यमें प्रचलित हिंसा का एक साथ विरोध किया । उन्होंने यन करना होगा। अवश्य ही उससे विभिन्न प्रकार के अपनी आलोचनामों से हिंसा के विरोध में केवल लोकमत अहिंसात्मक प्रयोग सामने प्रायेंगे । अपने देश में ही ही तैयार नहीं किया, अपितु हिंसक राजन्यों और ब्राह्मणों अशोक और उनके पुत्र एवं पौत्र, कलिंगराज, खारवेल, गुर्जर के बीच स्वयं उपस्थित होकर हजारों यज्ञीय पशुओं प्रतिहार सिद्धराज, कुमारपाल, धर्मपाल प्रादि ऐसे दर्जनों को छोड़वाया और यज्ञयूपों को तुड़वाया। उन्होंने अपने ऐतिहासिक राजानों के नाम हैं, जिनकी शासन-विधि के
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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