________________
महिंसा: प्राचीन से वर्तमान तक
जो वास्तव में प्रधान रूप से योग नही, योगाङ्ग है । यह अन्य नैतिक एवं व्यावहारिक गुणो शेरी, सत्य, सुरा पान प्रादि विरतियो— के साथ पटित है। इस प्रकार महिला को वयं नत्वनी माना गया है। यही कारण है कि बहुत प्राचीनकाल में ही प्रयोग दृष्टि से हिंसा के क्षेत्र को बहुत व्यापक समझा जाने लगा। उसे बौद्धो ने 'प्रमाण' जनों ने 'महाव्रत तथा पातलों ने 'सार्वभौम महाव्रत' की संज्ञा दी है। इस प्रकार प्राचीनकाल में ही अहिसा के निरपवाद नियम होने की क्षमता कति कर ली गई थी । पतजलि यह स्वीकार करते हैं कि अहसा जाति, देश और काल की सीमाओ से बधी हुई नही है । पुराने यज्ञवादियों ने तथा उनके पोपक मीमासकों ने अहिसा को सीमित करने का विपुल प्रयास किया है। उसमें उनको अांशिक सफलता भी मिली है। योगियों ने भी लोक व्यवहार में विविध विगताओं के कारण अपने ढंग से हिंसा की सीमा मानी है, किन्तु धार्मिक आधार पर नही । यहाँ तक कि वैदिक योगियों ने भी ग्रहिसा के समक्ष हिसक यज्ञादि को को कभी नहीं स्वीकार किया | योगियो के प्रभाव से मनु श्रादि धर्मशास्त्रकारों तक को यज्ञ के एक श्रेष्ठ विकल्प के रूप मे अहिसा को स्वीकार करना पड़ा । मनु किसी एक देशी प्राचार्य का मत बताते है कि वे लोग यज्ञशास्त्रवेत्ता है, किन्तु उसका अनुष्ठान न करके सदा विषयों का होम इन्द्रियों में करते
है ।
एतान् एते महायज्ञान् पशशास्त्रविदो जनाः । प्रनीमाना सतत इन्द्रियेष्वेव जुहू व वति ॥ मनु स्वयं भी कहते हैं कि सभी धेयस्कर एवं अनु शासन पूर्ण कार्य महिमा से ही सम्पन्न हो सकते है ।
अहिंसय भूतानां कार्यपोऽनुशासनम् ।
उक्त तथ्यों के आधार पर हिंसा की मान्यता के सम्बन्ध में सभी भारतीय विचारकों का जो ऐकमत्य मालूम होता है, वह इतिहास के अनेक पात-प्रतिघाती का समन्वित परिणाम है, जिसे हम परवर्तीकाल मे भारतीय संस्कृति मे प्रतिफलित पाते हैं किन्तु महिला की मूल समस्या का हम तब तक आवश्यक विश्लेषण
।
१७५
और समाधान नही कर पायेंगे, जब तक प्राचीन भारत को उन स्पष्ट दो धाराम्रो को ध्यान में नहीं रखेंगे, जिन्हें प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा ब्राह्मण और श्रमण अथवा ऋषि-मुनि श्रथवा हिंसक अहिंसक नाम से जाना जाता है । इन दो धाराम्रों में भारतवर्ष का संपूर्ण वाह्य और प्रान्तर जीवन विभक्त रहा है। संपूर्ण भारतीय इतिहास में इस विभाजन को हम कभी प्रति स्पष्ट कभी ईपत् स्पष्ट और कभी अन्तर्लीन पाते है। वर्तमान जीवन भी इस विभाजन से अछूता नहीं है। इन प्रवृत्तियों के विश्लेपण के बिना भारतीय जीवन के अंतरंग को समझना सम्भव नही है और न तो इसके बिना भारतीय समाज को कोई निर्वाध दिशा ही दी जा सकती है। इन विकास धाराम्रो के समुचित ज्ञान पर ही अहिंसात्मक प्रयोगों का वर्तमान और भविष्य बहुत कुछ निर्भर है । प्रहिंसा का अन्तर्राष्ट्रीय प्रयोग भी भारतीय परिवेश मे एक भिन्न प्रकार का ही होगा । इस अनिवार्यता का भी हमें ध्यान रखना होगा।
·
अहिंसा का तत्वज्ञान और उसका प्रयोग श्रमणधारा की विशेषता है। इसका प्रारम्भ महावीर धीर बुद्ध से ही नही, प्रत्युत इसके प्रारंभिक सकेत ऋग्वेद, ब्राह्मणग्रन्थो मे तथा विभिन्न प्रकार के सांख्य सम्प्रदायों में भी मिलते है । महावीर और बुद्ध ने अपने सामाजिक मौर धार्मिक प्रान्दोलनों से इसे ऐसा महत्व प्रदान किया, जिससे इसके अनुरूप एक और तत्वज्ञान और ग्राचार का विकास हुआ, दूसरी ओर हिंसा-सम्मत यज्ञयागादि विविध कर्मकाण्डो का विरोध भी खड़ा हुआ । श्रमण शम प्रधान और निवृत्तिवादी थे । इनका प्रधान कर्त्तव्य था जीवनशोधक श्रीर उद्देश्य था दुःख निवृत्ति या निःश्रेयस् । ब्राह्मणो का उद्देश्य ऐहिक एवं धामिक सुख भोग था। उनका प्रधान कर्तव्य था समाज मे ऐसे सुदु वर्ग बने रहें जिसमे विद्या, रक्षा और धन की किसी प्रकार कमी न हो। निवृत्ति वादियों में समानता नहीं थी। बुद्ध मेघपने सद्धर्म के विस्तार का प्रदम्य उत्साह था। वह प्रज्ञा के प्रकाश से ही सम्भव था, अतः उन्होने प्रज्ञा पर विशेष जोर दिया। महावीर ने व्यक्ति की शुद्धि पौर उसके प्राचार पर विशेष महत्व दिया। दोनों में सम और