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भारतीय संस्कृति को नाका योगदान जा सकता है। यह बात अवश्य स्वीकार करनी पड़ेगी में मगध पर पाक्रमण करके विजय प्राप्त की पौर भगकि 'पत्थरों से सिर टकराकर' इन उपलब्धियों की प्राप्ति बान् जिनेन्द्र की वह प्रसिद्ध प्रतिमा पुनः प्राप्त की जिसे के लिए जो मध्यवसाय और श्रम किया जाना चाहिए, कभी राजा नन्द उठाकर लाया था मोर जो 'कलिंग जिन, उसका शतांश भी अभी नहीं किया गया है।
नाम से प्रसिद्घ थी। इस प्रकार ईसा से बहुत पहले जैन यही स्थिति भप्रकाशित जैन साहित्य तथा प्रसिद्ध मूतियो का न केवल अस्तित्व सिद्ध होता है बल्कि जैन चित्रकला की भी है। साहित्य में तो मेरी गति नहीं
* उनकी लोकप्रसिद्धि भी सिद्ध होती है।
न है पर इतना मैं कह सकता है कि सितम्नवासल्ल' के जैन जैन कलाकार इस काल में अपने पाराध्य तीर्थकरों मदिरों की अनुपम चित्रकारी, एलोरा की जैन गुफा, इन्द्र
की एक से एक मनोज्ञ मोर सुन्दर मतियां बनाने लगे थे। सभा को विस्मृतप्राय चित्रसम्प्रदा और 'जिन कांची' प्रादि यो
यद्यपि वैदिक पीठ पोर तोरण पूजा के माध्यमों का अंकन
__ मथुरा के जैन स्तूपों में भी मिला है परन्तु तात्कालिक तब भारतीय चित्रकला का इतिहास नये सिरे से लिखने
तीर्थकर प्रतिमानो की भी वहां कमी नही है । मथुरा में की आवश्यकता पड़ेगी।
तो जैन तीर्थकर प्रतिमामों के निर्माण की यह शृंखला
उत्तरोत्तर विकसित होती हुई, गुप्तकाल में हमें अद्भुत मौर्य एवं शंगकाल
रूप में दिखाई देती है। देश के अनेक भागों में, दूर-दूर भारत पर सिकन्दर महान के भाक्रमण ( ३२६ ई. तक, मथुरा के स्थानीय लाल बलुवा पत्थर से मथुरा में ही पू० ) के उपरान्त उत्तर भारत में प्रसिद्ध मौर्य साम्राज्य बनी हुई प्रतिमाएं इतनी अधिक मात्रा में प्राप्त हुई है जिनसे स्थापित हुमा । इस साम्राज्य का सबसे प्रतापी सम्राट नगता है कि या तो इन प्रतिमाओं का निर्माण किसी बृहद अशोक हुमा । अशोक यद्यपि बौद्ध धर्मानुयायी था परन्तु मौर सुनियोजित धार्मिक अनुष्ठान अभियान अन्तर्गत हुमा जीवन के अन्तिम समय में उसके द्वारा जैन धर्म अंगीकार होगा या फिर मथुरा में व्यापारिक दृष्टिकोण से ये मूर्तियां कर लिए जाने के उल्लेख जैन साहित्य मे मिलते हैं। बनाकर देश-देशान्तर को भेजी जाती थी। शुंगकाल में जैनधर्म, साहित्य और कला को अशोक का संरक्षण प्राप्त मथुरा में जिस पदभत शिल्प का निर्माण हुमा, उसमें होने का भी उल्लेख भाता है। अशोक के पौत्र सम्प्रति जैन मायागपट्ट तथा कतिपय जैन तीर्थकर मूर्तियां उम्र ने तो न केवल जैनधर्न धारण किया वरन देश भर में तथा काल की समची निर्मिति अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। देश के बाहर अफगानिस्तान तक उसका प्रचार भी किया। प्रायागपट्ट के मध्य में तीर्थकर का अंकन करके चारों बिहार में जो इतिहास प्रसिद्ध जैन राजा हए, उनमें मोर स्वस्तिक, नंद्यावर्त, धर्मचक्र, मीनयुपल, स्वस्तिक, श्रेणिक ( बिम्बिसार), पजातशत्र, चेटक, जितशत्र, नन्द- कलश तथा अनेक प्रकार के लता वृक्षों का जो मनोहारी वर्डन, चन्द्रगुप्त मौर सम्प्रति के नाम उल्लेखनीय है। संयोजन मथुरा के कलाकार ने किया है अथवा उसकी
यद्यपि इस काल मे बौद्धमठ, विहार, स्तुप और कुशल मोर प्रवण छेनी से तीर्थकर मतियों पर देवत्व स्तम्भ ही अधिकतर निर्मित किये गए तथा जन मोर और वीतरागता के जो भाव अवतरित हुए है, उससे वहां शव निर्माण बहुत ही अल्प हुए, फिर भी इस काल के के कलाकार के सौन्दर्यबोध और भावांकन की क्षमता कुछ बहुत शानदार अवशेष खण्डगिरि उदयगिरि की का प्रमाण मिलता है। गुफामों मे, बिहार में पटना के पास-पास तथा मथुरा से लगभग उसी काल में निर्मित खण्डगिरि-उदयगिरि प्राप्त हए हैं। खण्डगिरि उदयगिरि की जैन गुफामों का की गफानों में भी तात्कालिक विकसित और एक सर्वथा निर्माता सम्राट खारवेल अशोक की ही तरह महान् प्रतापी सुनियोजित जैन मूर्तिकला के दर्शन होते हैं । वहा 'कलिंग धार्मिक और एशस्वी सम्राट था। हाथीगुम्फा शिलालेस जिन' की पुनःस्थापना का महोत्सव मनाते हुए सम्राट खारके अनुसार, बारबेल ने अपने शासनकाल के प्रारह वर्षः वेल और उनकी रावमाहितीमा उल्लासपूर्णः.अंकल तो.