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________________ १७२, वर्ष २८, कि० १ प्रनेकान्त क्योंकि वह अपने समाज को 'डिकेडेन्ट --निम्नगामी- महत्त्व की बात है कि कन्फ्यूशस को छोड़ शेष प्रायः मानता था और अतीत के स्वर्ण युग को लौट जाना चाहता सारे चोनी दार्शनिक चिन्तक भारतीय चिन्तकों की ही था। उसी दिशा मे उसने प्रयत्न भी किये पर प्रतिक्रिया- भांति अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा का जीवन जी रहे थे वादी होते हुए भी उसका वैचारिक आदोलन चल निकला और उसका प्रचार कर रहे थे। यही कारण था कि बौद्ध और उसने जनता पर अपने मोह का जादू डाला, ठीक भिक्षुओं का जव चीन में प्रवेश हुमा, तब वहाँ के श्रद्धाउसी तरह जिस तरह प्रतिक्रियावादी होते हुए भी अव- लुप्रो को वह नया बौद्ध धर्म सर्वथा विदेशी नहीं लगा। नीन्द्रनाथ टैगोर का अजन्तावादी अांदोलन भारत मे चल वस्तुतः इन आदोलनों ने उस धर्म के लिए भमि तैयार गया था और उसका जादू बंगाल पर दीर्घ काल तक छाए कर दी। कुछ ही काल बाद चीन मे एक विकट घटना रहा था। कमायूशस ने प्राचीन ग्रंथों का अपने चिन्तन घटी। उत्तर-पश्चिम मे सूखा पड़ा, कान्सू के हण विचल दर्शन के अनुरूप ढालकर उनकी व्याख्या की और आदिम हुए, चरागाहों की खोज में पश्चिम की ओर चले अकृत्रिम जीवन की ओर उसने अपने अनुयायियों को लौट और उनकी टक्करो से यूहची उखड़ गये । यहचियों ने चलने को कहा। प्राचार उसका परम प्राराध्य बना। शको को और पश्चिम में ढकेला । शको ने वक्ष (ग्रामभारत के दार्शनिक, महावीर के साथ-साथ सभी भारतीय दरिया की घाटी) से ग्रीकों को भगा दिया। यहची चिन्तक, रूढि विरोधी थे, अपनी तर्कसत्ता की लीक पर की पीठ पर ही हूण भी थे जो अपनी बारी (ग्राम दरिया) चलते थे। अनुकरण मौलिक चिन्तन का शत्र है यह वे में जा बसे । तभी भारत का अशोक बौद्धधर्म के साधुनो जानते थे और अपनी ही खोजी राह पर चलते थे। को देशान्तरो मे भेज रहा था। जिसके पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य ने महावीर के धर्म को अपनाया था और जिसके मोत्ज कन्फ्युशस का एकान्त प्रतिगामी था, रूढियों पौत्र, दशरथ और सम्प्रति क्रमश. आजीवक और जैन का अप्रतिम शत्रु । वह सगठित समाज को ही अस्वीकार धर्मों का पालन-प्रचार कर रहे थे। चीन ने देखा तककरता था। उसे अनित्य और दुखकर मानता था । महा- लाम-कान-तुर्फान-तुनहुप्रांग की राह भारतीय चीवरधारी वीर के भारतीय समकालीनो मे मोत्ज अत्यन्त निकट था। भिक्ष उन भारतीय बस्तियो की ओर जानलेवा राह से वह भी अभिजात था, उसका दर्शन भी आभिजात्यमूचक चले पा रहे थे जो रेशमी व्यापार के महापथ पर बस एकान्तिक था। उसका दार्शनिक प्रादोलन मोहिस्त नाम गई थी और जो उस बौद्ध ऐश्वर्य को भोग रही थी, की से फैला। जिसका अनेकांश महावीर चिन्तन से प्रभावित था। नाग्रोवाद का प्रवर्तक लामोत्ज़ भी प्राय. तभी हुमा पश्चिमी एशिया साम्राज्यों की सत्ता से संत्रस्त था। था। यद्यपि उसकी ऐतिहासिकता मे कुछ लोगों ने सुमेरियों के ध्वंसावशेष पर बाबुली उठे थे, बाबुलियों के अविश्वास किया है । लामोत्जू चाहे ऐतिहासिक व्यक्ति न भग्नस्तूपों पर अमुरो ने अपने अपूर्व भवनो के स्तम्भ खड़े रहा हो, पर उसके दर्शन की बेल उसी काल लगी, जब किए थे और तलवार से अपनी कीति लिखी थी। उनका केवली महावीर अपने देखे सत्य का भारत में प्रचार कर साम्राज्य अब नष्ट हो रहा था। प्रार्य मीदियों की उठती रहे थे । तानोवाद पर्याप्त फैला जो वस्तुत. प्राज तक हुई सत्ता के अब वे शिकार हो रहे थे। उन्होने असुरों मर नही पाया। बौद्धधर्म के चीन में प्रचार के बाद की राजधानी निनेवे को जला डाला था और महावीर के उसका दर्शन नए धर्म का सबल प्रतिद्वन्दी सिद्ध हुआ। समकालीन ईरानी सम्राट कुरुप ने मिस से प्रारमीनीया अपने सावधि समाज को उसने भी निम्नगामी-डिकेडेन्ट तक और सीरिया से सिन्धु तक की भूमि जीत ली थी, माना और अकृत्रिम सहज जीवन को उसने अपनाया। जिसकी साम्राज्य सीमा पूरब मे दारा ने सिन्धु नदी लांघ उसने प्रग्रज्या को सराहा और कभी राजसत्ता का अनुगामी रावी तक बढ़ा ली थी। जब महावीर बासठ वर्ष के हुए वह नही बना। तभी ५३७ ई० पूर्व में उधर एक महान घटना घटी
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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