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भगवान महावीर की वाणी के स्फुलिंग
सूत्र प्रस्तुत किया। इसके अनुसार एक ही मनुष्य एकही पर प्रतिष्ठित किया। उन्हें सम्म क्मो की सचता का जन्म में ब्राह्मण भी हो सकता है, क्षत्रिय भी हो सकता समभागी बना मानबीय एकता की माधारभूमि प्रशस्त है, कुछ भी हो सकता है, पिता क्षत्रिय और पुत्र वैश्य हो की। सकता है। वैश्य पिता का पुत्र शुद्र भी हो सकता है।
उस समय वैचारिक हिंसा का भी दौर चल रहा था। कर्मणा जाति की इस परिवर्तनशील व्यवस्था में ऊँच,
अपने से भिन्न विचार रखने वालों पर प्रहार करना, नीच और छुपाछत का भेद नहीं पनप सकता।
उनके विचारों की प्रसत्यता प्रामाणिक करना धर्म-सम्प्र. समता के दो प्रमख प्रतिफल -अहिंसा एवं अपरि- दायों में भी मान्य था। एक धर्म के लोग दूसरे धर्म ग्रह । अहिंसा का सिद्धान्त अपनी प्रात्मा के प्रति जाग- वालों पर कटाक्ष करते थे । भगवान् महावीर ने अनेकान्त रूक रहने का सिद्धान्त है। अपनी आत्मा के प्रति जाग- का दर्शन प्रस्तुत कर जनता को समझाया। सत्य की रूक वही रह सकता है जो प्रात्मा के परमात्म स्वरूप को उपलब्धि समन्वय और सापेक्षता के द्वारा ही हो सकती जानता है । ऐसा व्यक्ति दूसरों के प्रति विषमतापूर्ण व्यव- है। एकांकी दृष्टि से प्रस्तुत किया जाने वाला कोई भी हार नहीं कर सकता। इस आधार पर भगवान महा- विचारपूर्ण सत्य से विच्छिन्न होने के कारण सत्य नहीं वीर ने पशु-बलि-अनौचित्य ठहराया। अनिवार्य हिंसा भी हो सकता। इस अनेकान्त की धारा ने साम्प्रदायिक हिंसा है। धर्म के नाम पर हिंसा विहित नहीं हो सकती। सकीर्णता के स्थान पर उदार विचार, सर्वग्राही दृष्टिकोण
भोर समन्वय की प्रतिष्ठा की। ___ वनस्पति का पाहार जीवन की अनिवार्यता है या हो सकती है, किन्तु मांस का भोजन जीवन की अनि
ढाई हजार वर्ष पहले समाज को पार्मिक स्वतंत्रता वार्यता नही है। उससे सात्विक वत्तियों का उपघात
अधिक प्राप्त थी। कोई व्यक्ति चाहे जितना धन अजित भी होता है। भगवान महावीर ने मांसाहार के प्रति
कर सकता था। राजकीय कर भी बहुत कम थे। कुछ जनता में प्रवांछनीयता की भावना पैदा की पौर भार
व्यक्ति धन कुबेर थे। कुछ बहत दरिद्र भी थे। पार्थिक तीय समाज में मांसाहार-विरोधी दष्टिकोण प्रभावशाली
विषमता के प्रति कोई सामाजिक चितन विकसित नहीं हो गया।
हुमा था। सामान्य जनता मे यह धारणा थी कि जो धनी भगवान महावीर ने कर्मकाण्डों को आध्यात्मिक रूप
बना है, उसने पूर्व जन्म मे अच्छे कर्म किए है । जो गरीब दिया। उस समय यज्ञसस्था बहुत प्रभावशाली थी। भग
है उसने पूर्व जन्म में बुरे कर्म किए है। अपने-अपने किए वान के यज्ञ के प्रति होने वाले जनता के आकर्षण को
हुए कर्मों का फल भुगतना पड़ता है। इस धारणा के समाप्त नही किया, किन्तु यज्ञ की आध्यात्मिक योजना
आधार पर गरीब के मन मे अमीर के प्रति माक्रोश नही कर उसे रूपान्तरित कर दिया।
था । सामाजिक स्तर पर भी वह विषमता-पूर्ण व्यवस्था हिंसा का विधान स्वर्ग के लिये किया गया था। भग- मान्य थी। किन्तु समता की कसौटी पर वह खरी नहीं वान महावीर ने निर्वाण के विचार को इतनी प्रखरता उतर रही थी। इस लिए भगवान महावीर ने अपरिसे प्रस्तुत किया कि स्वर्ग की आकांक्षा और स्वर्ग के लिये ग्रह का सिद्धात समझाया । उन्होने कहा-~-प्रत्येक गृहस्थ की जाने वाली हिंसा-दोनो के पासन हिल गये । हिंसा को व्रती बनना चाहिए और जो व्रती बने, उसे परिग्रह का अर्थ केवल प्राणहरण ही नहीं है । घुणा भी हिसा है। की सीमा अवश्य करनी चाहिए। अर्जन के साधनों की स्वतंत्रता का अपहरण भी हिंसा है। तत्कालीन समाज शुद्धि, परिग्रह की सीमा और उपभोग का सयम-इन व्यवस्था मे स्त्रियो और शूद्रों को अपेक्षित स्वतंत्रता तीनों को श्रृंखलित कर धर्म की एक ऐसी दशा का उदप्राप्त नहीं थी । भगवान् महावीर ने स्त्रियों और शूद्रों घाटन किया, जिसकी व्यावहारिक परिणति आर्थिक समाको अपने संघ में दीक्षित कर उन्हें समानता के प्रासन नता में होती है।