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________________ भगवान महावीर की वाणी के स्फुलिंग प्राचार्य श्री तुलसी भगवान महावीर ने शाश्वत सत्य की खोज की और प्रचलित धारणामों में जहाँ-जहाँ विषमता दिखाई दी, उसी का प्रतिपादन किया। वे कोरे युगद्रष्टा नहीं थे। उसका प्रतिरोध किया। युगद्रष्टा केवल सामयिक सत्य को देखता है। जो शाश्वत कुछ विद्वान कहते है कि वैदिक धर्म में प्रचलित दर्शी होता है, वह युगदर्शी होता ही है, किन्तु युगातीत- रूढियों का विरोध करने के लिये महावीर समाज के दर्शी भी होता है । शाश्वत सत्य का प्रस्फुटन युग के सम्मुख एक सुधारक के रूप में प्रस्तुत हुए। उनकी प्रवृ. संदर्भ में भी होता है और उससे परे भी होता है। महा त्तियों और धार्मिक प्रेरणामों के आधार पर यह निष्कर्ष वीर भारत की मिट्टी में जन्मे । भारतीय समाज उनका निकाला जाता है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह यथार्थ नहीं पता समाज था । उनके पिता लिच्छविगण के एक है। उन्होंने अवश्य ही विषमतापूर्ण रूढ़ियों का प्रतिरोध सदस्य थे। वैशाली का विपुल वैभव और प्रभुत्व उनके विया, पर वह प्रतिरोध करने के लिये एक सुधारक के भास पास परिक्रमा कर रहा था। वे जिस समाज में पले रूप में प्रस्तुत नहीं हुए। वह समतामय धर्म की समग्र सब समाज उन दिनों भारतीय समाज कहलाता था धारणा को लेकर समाज के सामने प्रस्तुत हुए और प्रासंऔर माज वह हिन्दू समाज कहलाता है। उस समय में गिक रूप में प्रतिरोध भी उनके लिये अनिवार्य हो गया। धर्म की दो धाराएं प्रवाहित हो रही थीं-वैदिक और समाज का बहुत बड़ा भाग जन्मना जाति मे विश्वास म श्रमण । महावीर ने दोनो धारामों का निकटता से परि __ करता था । यह विषमतापूर्ण सिद्धान्त था। जाति से चय किया। तीस वर्ष की अवस्या में वह श्रमण बने। यदि प्रादमी ऊंचा और नीचा हो सकता है तो फिर पुरुमाले बारह वर्ष तक उन्होंने दीर्घ तपस्था और साधना षार्थ का कोई महत्व ही नही रहता। जाति से कोई की। उसके बाद उन्हें कैवल्य प्राप्त हुा । उन्होंने सत्य प्रारमीनीचा का साक्षात्कार किया । जनहित के लिये उन्होंने धर्म- भीनीचा भी नीचा ही रहेगा और उच्चजाति वाला बुरा आचरण व्याख्या की। उन्होंने बताया-समता धर्म है । राग पार करने पर भी ऊंचा रहेगा । इस व्याख्या मे पुरुषार्थ और नों विषमता के वीज है । अन्तर जगत की प्राचरण शून्य हो जाते है । जाति ही सब कुछ हो जाती जितनी समस्याएं है, उनका मूल हेतु राग-द्वष हा है। है। इस व्याख्या के पीछे छिपा हमा जो पक्षपात था वह सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर भी जो समस्याएं समता-धर्म के अनुकूल नहीं हो सकता। धर्म से मनुष्य उभरती है, उनके पीछे भी राग-द्वेष का बहुत बड़ा हाथ तटस्थता की अपेक्षा रखता है। वही धर्म यदि पक्षपात होता है। राग-द्वेष पर विजय पाये बिना समता नहीं सघती और राग-द्वेष का पाठ पढ़ाये तो धर्म की प्रयोजनीयता और समता की सिदिध हए बिना धर्म प्राप्त नहीं हो ही समाप्त हो जाती है। महावीर ने प्रचलित जातियों को सकता । जहाँ जितनी और जो विषमता है, वह सब अस्वीकृत नहीं किया । जाति-व्यवस्था के पीछे रहे हुये अधर्म है। जहाँ जितनी और जो समता है, वह सब धर्म मनोवैज्ञानिक कारणों की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने केवल है। इस कसौटी पर उन्होंने धर्म को कसा भोर धर्म की जन्मना जाति के सूत्र को बदल कर कर्मणा जाति का
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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