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________________ महावीर को तपस्या और सिद्धि जगत में कोई भी पदार्थ बहुमूल्य एवं पादरणीय के मूल कारण दुर्द्ध मोहनीय कर्म का शीघ्र क्षय करने बनता है तो वह बहुत परिश्रम तथा कष्ट सहन करने के के लिये क्षपक श्रेणी उपयोगी होती है। कर्म-क्षय के योग्य पश्चात ही बना करता है। गहरी खुदाई करने पर मिट्टी. आत्मा के परिणामों का प्रति क्षय असख्य गुणा उन्नत होना पत्थरों में मिला हमा भद्दा रत्न-पाषाण निकलता है, ही क्षपक श्रेणी है। क्षपक पाठवें, नौवें, दसवें और बारउसको छैनी, टाँकी, हथौड़ो की मार सहनी पड़ती है, हवें गुण स्थान मे होती है। इन गुण-स्थानों मे चारित्र्य शाण की तीक्ष्ण रगड़ खानी पडती है, तब कहीं झिल- मोहनीय को शेष २१ प्रकृतियो की शक्ति का क्रमशः ह्रास मिलाता हा बहमुल्य रत्न प्रकट होता। अग्नि के भारी होता है, क्षय बारहवें गुण-स्थान में हो जाता है : सन्ताप मे बार-बार पिघलकर सोना चमकीला बनता है, उस समय प्रात्मा के समस्त क्रोध, मान काम, लोभ, तभी संसार उसका पादर करता है और पूर्णमूल्य देकर माया, द्वष आदि कषाय समूल नष्ट हो जाते है, प्रात्मा उत्कंठा से खरीदता है। पूर्ण शुद्ध वीतराग इच्छा-विहीन हो जाता है, तदनुसार दूसरा शुक्ल ध्यान (एकत्व वितर्क) होता है, जिससे ज्ञानपदार्थ ससार में एक भी नही है। रत्न की तरह उसका दर्शन के अविरक तथा बलहीन कारक (जानावरण, दर्शनावैभव भी अनादि कालीन कर्म के मैल से छिपा हुमा है। वरण और अन्तराय) कर्म क्षय हो जाते है, तब मात्मा उस गहन कर्म-मल में छिपे हुए वैभव को पूर्ण शुद्ध मे पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन और पूर्ण बल का विकास हो प्रकट करने के लिये महान परिश्रम करना पड़ता है और जाता है, जिनको दूसरे शब्दों में अनन्त ज्ञान, अनन्त महान कष्ट सहन करना पड़ता है, तब यह प्रात्मा परम दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त बल कहते है। इन गुणों के शुद्ध विश्ववन्द्य परमात्मा वना करता है। पूर्ण विकसित हो जाने से प्रात्मा पूर्णज्ञाता--द्रप्टा बन तीर्थकर महावीर को भी प्रात्मशुद्धि के लिए कठोर जाता है । यह प्रात्मा का १३वा गुण-स्थान कहलाता है । तपस्या करनी पड़ी। तपश्चरण करते हुए उनकी पूर्व क्षपक श्रेणी के गुण-स्थानो का समय अन्तर्मुहूर्त है, संचित कर्मराशि निर्जीर्ण (निर्जरा) हो रही थी, कर्म उसी में योगी सर्वज्ञ हो जाता है। वीतराग सर्वज्ञ हो प्रागमन (प्रास्रव) तथा बन्ध कम होता जा रहा था। जाना हा मात्मा का जावन-मुक्त परमात्मा (महन्त) हा अर्थात् प्रात्मा का कर्म-मल कटता जा रहा था या घटता जाना है। प्रात्मोन्नति या प्राःम-शुद्धि का इतना बड़ा जा रहा था । अतः प्रात्मा का प्रच्छन्न तेज क्रमशः उदीय कार्य होने मे इतना थोड़ा समय लगता है. किन्तु यह मान हो रहा था, प्रात्मा कर्म-भार से हल्का हो रहा था, महान कार्य होता तभी है, जबकि प्रात्मा तपश्चरण के द्वारा शुक्ल ध्यान के योग्य बन चुका हो। मुक्ति निकट प्राप्ती जा रही थी। तेरहवें गुण स्थान में तीसरा शुक्ल ध्यान ( सूक्ष्म विहार करते-करते तपस्वी योगी, तीथंकर महावीर क्रिया प्रतिपाती) होता है।। मगध (बिहार) प्रान्तीय 'जम्भिका' गांव के निकट बहने मात्मोन्नति या प्रात्मशुद्धि अथवा वीतराग, सर्वज्ञ वानी 'ऋजुकला' नदी के तट पर लाये। वहाँ पाकर महन्त, जीवन्मुक्त परमात्मा बनने का सही विधि-विधान उन्होने साल वृक्ष के नीचे प्रतिपायोग धारण किया। तीर्थकर महावीर को भी करना पड़ा। १२ वर्ष ५ मास स्थात्म-चिन्तन में निमग्न हो जाने पर उन्हें सातिशव १५ दिवस तक तपश्चर्या करने के अनन्तर उन्होंने प्रथम अप्रमत्तगुण स्थान प्राप्त हुमा । तदनन्तर चारित्र मोहनीव शक्न ध्यान की योग्यता प्राप्त की, तत्पश्चात् पहले लिखे कर्म की शष २१ कृतियों का क्षय करने के लिये क्षपक लिय क्षपक अनुसार उन्होंने मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण मोर श्रेणी का प्राद्यस्थान पाठनों गुम स्थान हुमा। तवर्थ अन्तराय चार धातिया कर्मों का क्षय अन्तर्मुहूर्त मे करके प्रथम शुक्ल ध्याम (पृथकत्व वितर्फ विचार) हमा। वचार हा सर्वज्ञ वीतराग या बर्हन्त जीव-मक्त परमात्म-पद प्राप्त जैसे ऊंचे भवन पर शीघ्र पहने के लिये सीढी उप किया। मत: वह पूर्ण शुद्ध एवं विकालमाता त्रिलोकस योपी होती है, उसी प्रकार संसार-भ्रमण एवं कर्म-बन्धन बन गये।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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