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________________ महावीर की तपस्या और सिद्धि - उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्द महान कार्य-सिद्धि के लिए महान परिश्रम करना आते थे । उसके सिवाय अपना शेष समय एकान्त स्थान, पडता है। श्री वर्द्धमान तीर्थकर को अनादि समय का वन, पर्वत, गुफा, नदी के किनारे, श्मशान, बाग आदि कर्म-बन्धन, जिसने अनन्त शक्तिशाली प्रात्मानों को दीन, निर्जन स्थान में बिताते थे । वन के भयानक हिंसक पशु हीन बलहीन बनाकर संसार के बन्दीघर ( जेलखाने ) जब तीर्थकर महावीर के निकट पाते तो उन्हें देखते ही में डाल रखा है, नष्ट करने के लिए कठोर तपस्या करनी उनकी ऋर हिंसक भावना शान्त हो जाती थी, अतः पड़ी, तदर्थ- वह जब प्रात्म-साधना निमग्न हो जाते थे, उनके निकट सिंह, हरिण, सर्प, न्योला, बिल्ली, चहा तब कई दिन तक एक ही प्रासन में मचल बैठे या खड़े आदि जाति-विरोधी जीव भी द्वेष, वैर-भागना छोड़कर रहते थे। कभी-कभी एक मास तक लगातार आत्म-ध्यान प्रम शान्ति स काड़ा किया करत थ। करते रहते थे। उस समय भोजन-पान बन्द रहता ही निःसंग वायु जिस प्रकार भ्रमण करती रहती है, एक था, किन्तु इसके साथ बाहरी वातावरण का भी अनुभव ही स्थान पर नहीं रुकी रहती, इसी प्रकार प्रसंग निर्ग्रन्थ नहीं हो पाता था। शीत ऋतु में पर्वत पर या नदी के तीर्थंकर महावीर तपश्चरण करने के लिये भ्रमण करते सट पर अथवा किसी खुले मैदान में बैठे रहते थे, उन्हें रहे । भ्रमण करते हुए जब वह उज्जयिनी नगरी के भयंकर शीत का भी अनुभव नहीं होता था। ग्रीष्म ऋतु निकट पहुंचे तब वहां नगर के बाहर 'प्रतिमुक्तक' नामक में वह पर्वत पर बैठे ध्यान करते थे, ऊपर से दोपहर की श्मशान को एकान्त-शान्त प्रदेश जानकर वहां प्रात्मध्यान धूप, नीचे से गरम पत्थर, चारों मोर से लू (गरम हवा) करने ठहर गये । जब रात्रि का समय हुआ तो वहां पर उनके नग्न शरीर को तपाती रहती थी, किन्तु तपस्वी 'स्थाणु' नामक एक रुद्र पाया। उस स्थाणु रुद्र ने ध्यानवर्धमान को उसका भान नहीं होता था। वर्षा ऋतु में मग्न तीर्थंकर महावीर को देखा। देखते ही उसने उन्हें नग्न शरीर पर मूसलाधार पानी गिरता था, तेज हवा ध्यान से विचलित करने के लिये घोर उपसर्ग करने का विचार किया। चलती थी, परन्तु महान योगी तीर्थंकर महावीर अचल आसन से प्रात्म चिंतन में रहते थे। तदनुसार अपने सिद्घ विद्याबल से अपना भयानक __ जब वह मात्म-ध्यान से निवृत्त हुए और शरीर को विकराल रूप बनाया और कानों के पर्दे फाड़ देने वाला कुछ भोजन देने का विचार हा तो निकट के गांव या अट्टहास किया। अपने मुख से अग्नि-ज्वाला निकाल कर नगर में चले गये । वहाँ यदि विधि-प्रनुसार शुदध भोजन ध्यानारूढ़ तीर्थंकर महावीर की मोर झपटा। भूत-प्रेतों मिल गया तो नि:स्पृह भावना से थोड़ा-सा भोजन कर लिया ने भयानक नृत्य दिखलाये । सर्प, सिंह, हाथी, प्रादि ने भोर तपस्या करने वन, पर्वत पर चले गए। कही दो दिन भयानक शब्द किये। धूलि, अग्निवर्षा की । इस प्रकार ठहरे, कही चार दिन, कही एक सप्ताह, फिर विहार के अनेक उपद्रव तीर्थंकर को भयभीत करने तथा प्रात्मकरके किसी अन्य स्थान को चले गये। यदि सोना प्राव. ध्यान से चलायमान करने के लिये किये, परन्तु उसे कुछ श्यक समझते, तो रात को पिछले पहर कुछ देर के लिये भी सफलता न मिली । न तो परम तपस्वी वर्द्धमान रचकरवट से सो जाते। इस तरह से प्रात्म-साधन के लिये मात्र भयभीत हुए और न उनका चित्त ध्यान से चलायअधिक से अधिक और शरीर की स्थिति के लिए कम से मान हुआ । वह उसी प्रकार अपने प्रचल पासन से ठहरे कम समय लगाते थे। रहे, जिस प्रकार मांधी के चलतं रहने पर भी पर्वत ज्यों ऐसी कठोर तपश्चर्या करते हुए वह देश-देशान्तर में का त्यों खड़ा रहता है। अन्त में अपना घोर उपसर्ग भ्रमण करते रहे, नगर या गांव में केवल भोजन के लिये विफल होते देख, स्थाणु रुद्र चुपचाप चला गया।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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