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________________ जैन कवि कुशललाभ का हिन्दी साहित्य को योगदान डा० मनमोहन स्वरूप माथुर, उदयपुर अनेक जैन ग्राचायो ने हिन्दी साहित्य की सेवा विषय-वस्तु की दष्टि से इन चार भागों में विभक्त किया वी है । ऐसे ही एक जैन प्राचार्य है-कुशललाभ, जिन्होने जा सकता है-१. प्रेमाख्यानक रचनाएँ, २. जैन भक्ति हिन्दी भाषा और साहित्य की अपूर्व सेवा की। कुश- सम्बन्धी रचनायें, ३. पौराणिक साहित्य तथा ४. रीतिललाम धर्म से जन यति थे और जैसलमेर के रावल हर- सम्बन्धी रचनायें। गज के . पाश्रित थे। प्रारम्भ मे उन्होने हरराज के कुतूहलार्थ माधवानल कामकदला चौपाई, ढोला, माग्वणी कवि की रीति-विवेचक रचना है-पिंगल-शिरोमणि' । चौपाई जैसी शृगार-परक कृतियों और शिक्षण के लिए यह राजस्थानी भाषा का प्रथम छन्द-विवेचक ग्रन्थ है। पिंगल-शिरोमणि जैसे छंद-ग्रन्थ का निर्माण किया। रावल इसमें कवि ने प्रलंकार, कोश और राजस्थानी भाषा के हरगज की मृत्यु के पश्चात प्राय परिवाजक बन कर छन्द विशेष 'गीत' का भी विवेचन किया है। कुशललाभ उपाश्रयो मे ही आपने अपना शेष जीवन बिताया। इस को यही परम्परा हरिपिंगल प्रबन्ध, रघुवरजस प्रकास, काल मे उन्होने जैन चरित-काव्यो का प्रणयन किया। रघनाथ रूपक गीता रो, कवि कुलबोध, सज्जन चित्र चुनाव ' इनमे से किसी भी ग्रन्थ में कविने अपने जीवन-वत्त संबधी चन्द्रिका प्रादि राजस्थानी रीति-ग्रन्थो के रूप में विकसित चा काई सकेत नहीं दिया है। किन्तु ग्रन्थो मे वणित कतिपय हुई । राजस्थानी मे प्रलंकार-विवेचन की दष्टि से यह घटनाओं के आधार पर कुशललाभ का अस्तित्व-काल ग्रन्थ अभी भी सर्व प्रथम एव मौलिक है। विक्रम सवत् १५६०-१५६५ से वि० सं० १६५५ तक इन सभी कृतियों का प्रारम्भ मगलाचरण से किया माना जा सकता है । इमी भांति कुशललाभ की भाषा के गया है। ये मगलाचरण गणपति, सरस्वती, शंकर, विष्णु, आधार पर यह सम्भावना की जा सकती है कि प्रापका महामाई, कामदेव, जिनप्रभु जिनेश्वर, पार्श्वनाथ, गौतमजन्म गुजरात के निकटवती मारवाड़ प्रान्त मे ही हुआ ऋषि की स्तुति से सम्बन्धित है । जैन भक्ति सम्बन्धी रच. होगा। कृतियो की पुष्पिकाओ से स्पष्ट होता है कि कुश नायो मे जम्बूद्वीप, शत्रुजयगिरि आदि का भी परिचय ललाभ खरतरगच्छ सम्प्रदाय के अधिष्ठाता जिनचन्द्र के दिया गया है । कवि की इन रचनाओं का अन्त पुष्पिका शिष्य जिनभद्र सूरि की शिष्य-परम्परा में उपाध्याय द्वारा हुमा है, जिनमे कवि ने अपना और अपने गुरु खरअभयधर्म के शिष्य थे। तरगच्छीय उपाध्याय अभयधर्म का नामोल्लेख किया है। कुशललाभ ने अपने जीवन-काल में जैन एवं जैनेतर स्तोत्र एवं देवी-भक्ति रचनाओं में यह अन्त कवि ने विषयो से सम्बन्धित १८ ग्रन्थो' की रचना की। इन्हें 'कलश' छन्द के माध्यम से किया है, यथा १. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर। २. माधवानल कामकन्दला चौपाई, ढोलामारवणी चौपाई, जिनपालित जिनरक्षित सधि गाथा, पाश्वनाथ दशभव स्तवन, प्रगड़दत्त रास, तेजसार रास चौपाई, पिंगल-शिरोमणि, स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन, भीमसेन हंसराज चौपाई, शत्रुञ्जय यात्रा स्तवन, श्रीपूज्य वाहण वाहण गीत, महामाई दुर्गा सातसी, जगदम्बा छन्द अथवा भवानी छन्द, स्फुट छद, कवित्त और गुण सुन्दरी चौपाई (?)। ३. परम्परा, भाग १३.- राजस्थानी शोध संस्थान, जोधपुर।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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