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________________ ७२, पर्ष २८, कि० १ भनेकान्त प्रतद्गुण प्रादि विविध प्रलंकारों के प्रयोग है। इनके स्वयंभ, कवि मादि ने लीलावई-कहा की गाथानों को माध्यम से कवि ने कही प्रकृति का सुन्दर चित्रण किया है, उद्धृत किया है अथवा उसके वस्तुतत्त्व की भोर संकेत तो कहीं मनोदशाओं की सफल अभिव्यक्ति की है। कवि किया है। कविराज कंजर नेमिचन्द्र के कन्नड़ चम्पू लीलाकी दष्टि शब्दालंकारों की अपेक्षा अर्थालकारी पर ही वती, क्षेमेन्द्र की बहत्वथामंजरी, जयवल्लभ के बज्जालग्ग, अधिक है। शब्दालकारो मे श्लेष, अनुप्रास, यमक और घनेश्वरसूरि के सुरसुन्दरिय चरिय, सोमप्रभसूरि के कुमारशृंखला-यमक अलकारों के प्रयोग सहज ही सुलभ है। पालप्रतिबोध, सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू, सुभाषिता वली, अगडदन की कथा, धाहिल के पउममिरिचरिउ लीलावई एक प्रत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का काव्य है। आदि मे लीलावई से भाषा और भावगत साम्य है । नदी, पर्वत, वृक्ष, पुष्प, लता, कुज, फल, भ्रमर, कोकिल चन्द्रमा, सूर्य, ऋतु, समुद्र, अरण्य, सरोवर, उद्यान प्रादि प्राकृत कथा-साहित्य में लोकजीवन प्रचुर रूप में प्रकृति के समस्त उपकरणो का चित्रण यहाँ बहुलता से प्रतिबिम्बित हया है। संस्कृत साहित्य में उच्चवर्ग के प्राप्त होता है। कवि का प्रकृति-निरीक्षण सूक्ष्म एवं जीवन का ही चित्रण अधिक है, जब कि प्राकृत साहित्य मद्वितीय है। इस ग्रन्थ में अनेकों अछुती उपमायें तथा में जनसाधारण के जीवन का, उनकी परिस्थितियों और उर्वर कल्पनायें देखने को मिलती है। सामान्यतः प्रकृति- विवशताओं का अंकन है । भारतवर्ष के विगत ढाई हजार वर्णन की चार विधायें पालम्बन, उद्दीपन, अलकरण तथा वर्षों के सांस्कृतिक इतिहास का सुरेख चित्रपट खींचने में मानवीकरण यहाँ उपलब्ध होती है। प्रकृति के कलात्मक जितनी विश्वस्त और विस्तृत उपादान सामग्री इन वर्णन सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्रोदय और चन्द्रास्त के प्रसंग कथाग्रन्थों मे मिलती है, उतनी अन्य किसी प्रकार के में देखे जा सकते है। यद्यपि प्रकृति के रमणीय रूप का साहित्य में नहीं मिल सकती। इन कथाओं में भारत के वर्णन ही कवि को प्रिय है, तथापि प्रकृति के भीषण स्वरूप भिन्न-भिन्न धर्म, सम्प्रदाय, राष्ट्र, समाज, वर्ण प्रादि के का भी यत्किञ्चित् चित्रण उपलब्ध होता है। विविध कोटि के मनुष्यों के नाना प्रकार के प्राचार विचार, व्यवहार, सिद्धान्त, आदर्श, शिक्षण, संस्कार, लीलाबई-कहा का कथानायक हाल एक राजा है। रोति-नीति, जीवन-पद्धति, राजतन्त्र, वाणिज्य-व्यवसाय, विजयानन्द, पोट्रिस, माधवानिल, चित्रांगद, नागार्जुन, अर्थोपार्जन, समाजसगठन, धर्मानुष्ठान, एवं प्रात्मसाधन भट्ट कुमारिल, पाशुपत, शिलामेघ, विपुलाशय, नलकूबर आदि के निदर्शक बहुविध वर्णन प्राप्त होते है, जिनके हंस तथा मलयानिल इस कथाकृति के पुरुष पात्र तथा आधार से हम प्राचीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास का लीलावती, महानुमति, कुवलयावली, चन्द्रलेखा, माधवीलता, विचित्रलेखा, शारदश्री, वसन्तश्री, पद्मा, कमला सर्वांगीण एवं सर्वतोमुखी मानचित्र तैयार कर सकते है। और रंभा स्त्री पात्र हैं। इनके अतिरिक्त द्वारपाल, पुरो- इन ग्रन्थों में विविध सामाजिक उत्सवो-जन्मोत्सव, हित, मन्त्रिपुत्र, वीरवाहन, सालाहण का पुत्र प्रादि पात्रो नामकरण, वरणय, स्वयंवर, विवाह, मल्ल-महोत्सव प्रादि के उल्लेख हैं। चरित्र चित्रण की दृष्टि से कथा में किसी के वर्णन है। धार्मिक उत्सवों मे पर्यपण-पर्व, अष्टाह्निकापात्र के चरित्र का क्रमिक विकास प्रदर्शित नही किया पर्व, सिद्धचक्रविधान प्रादि की चर्चा है । विविध कलानों गया है, और न ही ऐसे स्थलों की योजना की गई है, तथा विद्याओं की सूचियां दी गई है। शिक्षा प्राप्त करने जिनसे पात्रों के चरित्र स्पष्ट हों। स्त्री पात्रों में उनके की मायु तथा शिक्षागृहों के उल्लेख है। कुवलयमाला में शारीरिक सौन्दर्य और प्रणयी स्वरूप का ही चित्रण है, विजयापुरी के छात्रमठ का वहाँ के छात्रो और उपाध्यायों यही बात माधवानिल और चित्रांगद के विषय में कही जा का वर्णन है। भोजन तथा मनोरजन के साधनो, धूतक्रीड़ा, सकती है। प्रहेलिका, गोष्ठियों मादि के उल्लेख है। वस्त्र, प्राभूषण मानन्दवर्धन, भोज, हेमचन्द्र, वाग्भट, त्रिविक्रम, तथा तत्कालीन रीति-रिवाजो का भी इनसे पता लगता
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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