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________________ २३०, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त न्तर भेद किए गए हैं। परिकर्म के ५, पूर्वगत के १४, है। प्रारम्भ में वह शिष्य-परम्परा में स्मृति के प्राधार पौर चल्लिका के पांच भेद हैं । परिकर्म के पांच भेद ये पर विद्यमान रहा। बाद में उसका संकलन किया गया। हैं:-(१) चन्द्र प्रज्ञप्ति, (२) सूर्य प्रज्ञप्ति, (३) जम्बू- वर्तमान में जो श्रुत प्राप्त है, वह दिगम्बर परम्परा के द्वीपप्रज्ञप्ति, (४) द्वीपसागर प्रज्ञप्ति और (५) व्याख्या- अनुसार दृष्टिवाद का कुछ अंश है, शेष ग्यारह अंग और प्राप्ति, (यह पांचवें अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति से अलग है)। बारहवें अंग का बहुभाग नष्ट एवं लुप्त हो चुका है । श्वेपूर्वगत के १४ भेद निम्न हैं-(१) उत्पाद, (२) प्राग्रा- ताम्बर परम्परा का मत इसके विपरीत है। यणीय, (३) वीर्यानुप्रवाद, (४) अस्ति-नास्ति प्रवाद, सार ग्यारह अंगों की उपलब्धि और बारहवें दृष्टिवाद (५) ज्ञान प्रसाद, (६) सत्य प्रवाद, (७) प्रात्मप्रवाद, अंग की अनुपलब्धि है। कर्म प्रवाद, (६) प्रत्याख्यान प्रवाद, (१०) विद्या- धर्म. वर्शन और न्याय : नवाद, (११) कल्याणनामधेय, (१२) प्राणावाय, (१३) उक्त श्रत में धर्म, दर्शन और न्याय तीनों का समाक्रियाविशाल, और (१४) लोक-बिन्दुसार । चूल्लिका के वेग पडता पूलिका २ वेश रहता है । मुख्यतया प्राचार के प्रतिपादन का नाम ५ भेद इस प्रकार हैं-(१) जलगता, (२) स्थलगता, धर्म है। इस धर्म का जिन विचारों द्वारा समर्थन एवं (३) मायागता, (४) रूपगता और (५) भाकाशगता। सम्पोषण किया जाता है उन विचारों को दर्शन कहा इनमें उनके नामानुसार विषयों का वर्णन है। जाता है। जब धर्म के समर्थन के लिए प्रस्तुत विचारों श्रुत का दूसरा भेव अंगबाह्य है । यह श्रुत मंगप्रविष्ट को युक्ति-प्रतियुक्ति, खण्डन-मण्डन, प्रश्न-उत्तर और श्रुत के पाधार से प्राचार्यों द्वारा रचा जाता है, इसी से शंका-समाधान पूर्वक दृढ़ किया जाता है तो उसे न्याय इसे अंगबाह्य श्रुत कहा है। इसके १४ भेद किये गये है। कहते हैं । धर्म, दर्शन और न्याय में यही मौलिक भेद है। है-(१) सामायिक, (२) चतुर्विशतिस्तव, (३) धर्म-शास्त्र कहता है कि 'सब जीवों पर दया करो, किसी वन्दना, (४) प्रतिक्रमण, (५) वैनयिक, (६) कृतिकर्म, जीव की हिंसा न करो' अथवा 'सत्य बोलो, असत्य कभी दशवकालिक, (6) उत्तराध्ययन, (९) कल्प्य व्य- मत बोलो' । दर्शनशास्त्र धर्मशास्त्र के इस कथन (नियम) बहार, (१०) कल्प्याकल्प्य, (११) महाकल्प, (१२) को हृदय में उतारता हया कहता है कि 'जीवों पर दया परीक, (१३) महापुण्डरीक और (१४) निषिद्धिका। करना कर्तव्य है, गुण है, पुण्य है और सुख मिलता है। इस श्रुत में मुख्यतया साध्वाचार वर्णित है। किन्तु जीव की हिंसा प्रकर्तव्य है, दोष है, पाप है, और : उत्तरकाल में अल्पमेधा के धारक प्राचार्य इसी द्विविध दुःख मिलता है।" इसी तरह सत्य बोलना कर्तव्य है, गुण श्रत का पाश्रय लेकर विविध ग्रन्थों की रचना करते और है, पुण्य है, और सुख मिलता है। किन्तु असत्य बोलना जन्हें जन-जन तक पहुँचाने का प्रयत्ल करते हैं। अकर्तव्य है, दोष है, पाप है और दुःख मिलता है। न्यायउपलब्ध श्रुतः शास्त्र दर्शनशास्त्र के इस समर्थन को युक्ति देकर दृढ़ ' ऋषभदेव का द्वादशांग श्रुत अजितनाथ तक, अजित- करता है कि यतः दया जीव का स्वभाव है, अन्यथा कोई नाथ का शम्भवनाथ तक और शम्भवनाथ का अभिनन्दन- भी जीव जीवित नहीं रह सकता। परिवार में, देश में नाथ तक, इस तरह पूर्व तीर्थकर का श्रुत उत्तरवर्ती मगले और राष्ट्रों में अनवरत हिंसा रहने पर शान्ति और सुख तीर्थकर तक रहा । तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का द्वाद- कभी उपलब्ध नहीं हो सकते । इसी प्रकार 'सत्य बोलना शांग श्रुत तब तक रहा, जब तक महावीर तीर्थंकर नहीं मनुष्य का स्वभाव न हो तो परस्पर में अविश्वास छा हुए। आज जो द्वादशांग श्रुत उपलब्ध है, वह तीर्थंकर जायेगा और लेन-देन प्रादि सारे सामाजिक व्यवहार या महावीर का है । अन्य सभी तीर्थकरों का द्वादशांग श्रुत तो भ्रष्ट हो जायेंगे मोर या समाप्त हो जायेंगे। तात्पर्य मष्ट एवं लुप्त हो जाने से अनुपलब्ध एवं प्राप्त है। यह है कि धर्म जहाँ सदाचार का विधान पौर दुराचार वर्षमान महावीर का द्वादशांग श्रुत भी पूरा उपलब्ध नहीं का मात्र निषेध करता है वहाँ दर्शनशास्त्र उनमें कर्तव्या
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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