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________________ २०, वर्ष २८, कि०१ भनेकाम्स खंडन किया और बताया कि ईश्वरत्व को प्राप्त करने के तारणा कभी कर्म के आधार पर सामाजिक सुधार के साधनों पर किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष का अधि- लिए श्रम-विभाजन को ध्यान में रख कर की गई थी, वह कार नहीं है । वह तो स्वयं मे स्वतन्त्र, मुक्त, निर्लेप और आते-आते रूढ़िग्रस्त ही रह गई और उसका प्राधार अब निविकार है। उसे हर व्यक्ति, चाहे वह किसी जाति, जन्म ही रह गया। जन्म से व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग, धर्म या लिंग का हो- मन की शुद्धता और प्राचरण और शूद्र कहलाने लगा। फल यह हुआ कि शूद्रों की की पवित्रता के बल पर प्राप्त कर सकता है । इसके लिए स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। नारी जाति की भी यही आवश्यक है कि वह अपने कषायों-क्रोध, मान लोभ स्थिति थी। शद्रों की और नारी जाति की इस दयनीय का त्याग कर दे। अवस्त्रा के रहते हुए धार्मिक क्षेत्र में प्रवर्तित क्रांति का धर्म के क्षेत्र मे उस समय उच्छङ्खलता फैल गई थी। कोई महत्व नहीं था। अतः महावीर ने बड़ी दृढ़ता और हर प्रमुख साधक अपने को तीर्थकर मान कर चल रहा निश्चितता के साथ शूद्रो और नारी जाति को अपने धर्म है था। उपासक की स्वतंत्र चेतना का कोई महत्व नही रह मे दीक्षित किया और यह घोषणा की कि जन्म से कोई गया था। महावीर ने ईश्वर को इतना व्यापक बना ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि नहीं होता, कर्म से ही सब दिया कि कोई भी आत्म साधक ईश्वर को प्राप्त ही नही होता है। हरिकेशी चाण्डाल के लिए, सद्दाल पुत्र कुम्भकार करे, वरन् स्वयं ही ईश्वर बन जाय । इस भावना ने प्रस के लिए, चन्दनबाला (स्त्री) के लिए उन्होंने अध्यात्महाय, निष्क्रिय जनता के हृदय में शक्ति, आत्म-विश्वास साधना का रास्ता खोल दिया। और आत्मबल का तेज भरा। वह सारे प्रावरणों को भेद प्रादर्श समाज कैसा हो? इस पर भी महावीर की कर, एकबारगी उठ खड़ी हुई। अब उसे ईश्वर-प्राप्ति के दृष्टि रही। इसीलिए उन्होंने व्यक्ति के जीवन मे व्रतलिए परमुखापेक्षी बन कर नही रहना पड़ा। उसे लगा साधना की भूमिका प्रस्तुत की । श्रावक के बारह व्रतों में कि साधक भी वही है और साध्य भी वही है। ज्यों-ज्यो समाजवादी समाज रचना के अनिवार्य तत्व किसी न किसी साधक तप, सयम और अहिंसा को आत्मसात् करता रूप में समाविष्ट है । निरपराध को दण्ड न देना, असत्य जायगा, त्यों-त्यों यह साध्य के रूप में परिवर्तित होता न बोलमा, चोरी न करना, न चोर को किसी प्रकार की जायगा। इस प्रकार धर्म के क्षेत्र से दलालों और मध्यस्थो सहायता देना, स्वदार-सतोष के प्रकाश मे काम भावना को बाहर निकाल कर, महावीर ने सही उपासना पद्धति पर नियन्त्रण रखना, प्रावश्यकता से अधिक संग्रह न का सूत्रपात किया। करना, व्यय प्रवृत्ति के क्षेत्र की मर्यादा करना, जीवन मे सामाजिक क्रांति समता, संयम, तप और त्याग वृत्ति को विकसित करनामहावीर यह अच्छी तरह जानते थे कि धार्मिक क्रांति इस व्रत-साधना का मूल भाव है। कहना न होगा कि इस के फलस्वरूप जो नयी जीवन-दृष्टि मिलेगी। उसका क्रिया- साधना को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति जिस न्वयन करने के लिए समाज के प्रचलित रूढ मूल्यों को समाज के अंग होगे, वह समाज कितना प्रादर्श, प्रगतिशील भी बदलना पड़ेगा। इसी सन्दर्म मे महावीर ने सामाजिक पौर चरित्रनिष्ठ होगा। शक्ति और शील का, प्रवत्ति क्रान्ति का सूत्रपात किया। महावीर वे देखा कि समाज में और निवृत्ति का वह सुन्दर सामञ्जस्य ही समाजवादी दो वर्ग है । एक कुलीन वर्ग जो कि शोषक है. दूसरा निम्न समाज-रचना का मूलाधार होना चाहिए। महावीर की वर्ग जिसका कि शोषण किया जा रहा है। इसे रोकना यह सामाजिक क्रान्ति हिंसक न होकर अहिंसक है, संघर्षहोगा। इसके लिए उन्होंने अपरिग्रह दर्शन की विचार- मूलक न होकर समन्वय-मूलक है। धारा रखी, जिसकी भित्ति पर आगे चल कर आर्थिक मार्थिक क्रान्ति । क्रान्ति हई। उस समय समाज में वर्ण-भेद अपने उभार महावीर स्वयं राजपुत्र थे । धन-सम्पदा और भौतिक पर था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की जो भव- वैभव की रंगीनियों से उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध था, इसी.
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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