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________________ स्यावाद का इतिहास २१७ जहाँ बुद्धिपूर्वक कार्य से सिद्धि हो, वहां पुरुषार्थ को प्रधान, बौद्धों के माक्रमण से जैन दर्शन की रक्षा का भगीरथ दैव को गौण माना जायेगा। प्रयत्न किया। इसकी अनेकांत-जयपताका और अनेकांतवादसिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति-तर्क के नयकांड में नय- प्रवेश इसके लिए प्रमुखरूप से द्रष्टव्य है। सप्तभंगी का ही वर्णन किया है। स्याद्वाद सप्तभगी विक्रम की ११ वीं शताब्दी में हेमचन्द्रसूरि ने स्याद् के वर्तमान रूप के लिए जैन दर्शन दोनों प्राचार्यों का वादरत्नाकर तथा मुनिचन्द्र सूरि ने अनेकांत-जयपताका ऋणी है । जैन दर्शन के इस स्यादवाद-सिदधान्त से समस्त टिप्पणग्रन्थों की रचना की। जैनेतर दृष्टियों का वस्तुस्पर्शी समन्वय स्वतः हो जाता है धर्मभूषण यति ने न्यायदीपिका रची। १८वीं शती इन दोनों प्राचार्यों ने केवल नय-सप्तभंगी का ही वर्णन में उपाध्याय यशोविजय जी का नाम उल्लेखनीय है । किया है, प्रमाणसप्तभंगी का नहीं। यद्यपि उक्त प्राचार्यों इन्होंने नव्य-न्याय की शैली में अनेक ग्रंथों का निर्माण के ग्रंथों का सूक्ष्म परीक्षण करने पर प्रमाण-सप्तभंगी के किया। विमलदास की सप्तभंगीतरंगिणी सप्तभंगी का बीजभूत वाक्यों का अन्वेषण किया जा सकता है; तथापि प्रतिपादन करने वाली अनूठी रचना है। प्रमाणसप्तभंगी का सर्वप्रथम स्पष्ट निर्देश करने का श्रेय संक्षेप में उपर्युक्त ग्रन्थ ही स्याद्वाब को प्रतिपाद्य भट्टाकलंक को ही प्राप्त है। प्रकलंक देव ने राजवातिक विषय बनाने वाले प्रमुख ग्रंथ है। और विद्यानंदि ने श्लोकवार्तिक में प्रमाण सप्तभंगी और प्राचार्य समन्तभद्र की प्राप्तमीमांसा में प्रमाण-सप्तऔर नयसप्तभंगी का पृथक-पृथक वर्णन किया है। विक्रमी क्रम भंगी तथा नयसप्तभंग्री दोनों का संकेत मिलता है। वे की छठी शताब्दी में पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि तथा लिखते हैं कि प्रापका युगपत सर्व पदार्थों का प्रतिभासनरूप मल्लवादि ने नयचक्र नामक बृहद् ग्रन्थों की रचना की। तत्त्वज्ञान प्रमाणभूत है, क्योंकि वह स्यादवाद तथा नयों से नयचक्र मे नय के विविध भंगो द्वारा जैमेतर दष्टियों के संस्कृत हो रहा है। समन्वय का सफल प्रयत्न हुआ है। तत्वज्ञानं प्रमाणं ते पुगपत सर्वभासनं । पाठवीं शताब्दी के एक और महान प्राचार्य है-हरि- क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्यादव बनयसंस्कृतम् ॥ भद्रसूरि जिन्होंने विविध शास्त्र तथा काव्य-ग्रन्थों की सर्जना कर मस्तिष्क की प्रौढ़ता और हृदय की सरसता पृथ्वी राज मार्ग, का परिचय किया है। इन्होंने जनेतर विद्वानों विशेषतः गुना (म० प्र०) 000 महावीर-वाणी पका हुमा तरु-पत्र ज्यों कि गिर जाता समय बीतने पर, त्यों मनुजों का जीवन है, मत कर प्रमाद, गौतम ! क्षण-भर । ज्यों कुशाग्रस्थित प्रोस-बिन्दु की स्वल्प-काल-स्थिति है सुन्दर, त्यों मनुजों का जीवन है, मत कर प्रमाद, गौतम ! क्षण-भर ।। -उत्तराध्ययन-सत्र पद्यानुवाद-मुनिश्री मांगी लाल 'मुकुल' 000
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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