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स्यादवाद का इतिहास
श्री मिश्रीलाल जैन, एडवोकेट, गुना (म०प्र०)
स्याद्वाद विषयक दार्शनिक साहित्य के इतिहास पर घान आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रस्तुत नहीं किया। द्वितीय दृष्टिपात करने पर भगवती सूत्र मे ही 'सिय अस्थि, सिय टीकाकार जयसेन ने इसका रहस्योद्घाटन किया है। पत्थि सिय अक्तव्वं ।'-इन तीन भागों का निर्देश प्राप्त वे लिखते है कि स्यादस्ति यह वाक्य सकलवस्तु का बोध होता है। इसके उपरान्त प्राचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय कराता है, अतः प्रमाण वाक्य है तथा स्यादस्त्येव द्रव्यं पौर प्रवचनसार में एक-एक गाथा देकर सातों भागों के यह वाक्य वस्तु के एक धर्म का वाचक है, अतः नयवाक्य नाम निर्देश किए है। दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट सप्तभंगी है। के क्रम में अन्तर है। पंचास्तिकाय में स्यावाद का निर्देश स्थावस्तीति सकलवस्तुग्राहकत्वात् प्रमाणवाक्यं । करने वाली गाथा इस प्रकार है
स्यादस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेकदेशग्राहकत्वान्नयवाक्यम् ॥ सिय प्रत्यि त्थि उहवयं प्रवत्तवं पुणो य तत्तिवयं ।
प्रवचनसार की टीका मे इसे और स्पष्ट करते है कि दव्वं खु सत्तभंग प्रावेसवसेण संभवदि ।। पंचास्तिकाय मे स्यादस्ति इस प्रमाण वाक्य द्वारा प्रमाण ___ जो द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से है, वही सप्तभंगी तथा प्रवचनसार में स्यादस्त्येव वाक्य द्वारा द्रव्य पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से नहीं है। वही प्रमाण सप्तभंगी तथा प्रवचनसार में स्यदस्त्येव वाक्य में द्रव्य है और नहीं भी है। इस प्रकार उभयरूप है। वहीं एवकार का ग्रहण नय सप्तभंगी को बतलाने के लिए किया द्रव्य एक साथ कथन मे नही आता अर्थात् प्रवक्तव्य है। गया है। वही द्वव्य है पर कहने में नही आता, वही द्रव्य नहीं हैं पर्व-पंचास्तिकाये स्थादस्तीत्यादि प्रमाणवाक्येन प्रमाणऔर कहने में नही पाता, वह द्रव्य है भी और नही भी सप्तभंगी व्याख्याता । अत्र तु स्यादस्त्येव यदेवकार ग्रहण है, पर कहने में नहीं आता है। इस प्रकार द्रव्य की सप्त तन्नयज्ञापनार्थमिति भावार्थः । भंगों द्वारा विवेचना संभव है।
प्राचार्य समन्तभद्राचार्य की प्राप्तमीमांसा में केवल प्रवचनसार में प्राचार्य कहते है कि किसी पर्याय से
नयसप्तभंगी का वर्णन है, प्रमाण सप्तभंगी का नहीं । अन्त उत्पाद और किसी से विनाश, सर्व पदार्थमात्र के होता है में प्राचार्य श्री का कथन है कि एकत्व अनेकत्व प्रादि और किसी पर्याय से पदार्थ वास्तव मे ध्रुव है। विकल्पों में भी नय विशारद को उक्त सप्तभगी की योजना उप्पादो व विणासो विज्जवि सत्वस्स अट्ठजादस्स। उचित रीति से कर लेनी चाहिए। इस ग्रन्थ में सत्पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सम्भूदो ॥ असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, द्वैत-अद्वैत, देव-पुरुषार्थ
प्राचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन प्रवचनसार के टीका- आदि अनेक दष्टिकोणों से जैन दष्टि का सुन्दर समन्वय कार है । प्रवचनसार के पाठ से दोनों टीकाकारों ने एवकार प्रस्तुत किया गया है। (ही) ग्रहण किया है। प्राचार्य अमृतचन्द्र पंचास्तिकाय देव और पुरुषार्थ के प्रचलित मतभेद के सन्दर्भ में को टीका में स्यादस्ति द्रव्यं (स्यात् द्रव्य है) और प्रवचन- आप्तमीमासा मे समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है-न कोई सार की टीका में स्यादस्त्येव (कथंचित है ही) लिखते कार्य देव से होता, न पुरुषार्थ से। दोनों रस्सियों से दधिहैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भिन्न-भिन्न ग्रन्थो मे पथक्-पृथक मंथन होता है । जहाँ बद्धिपूर्वक प्रयत्न के प्रभाव में फलदष्टि से व्याख्यान क्यों दिया? इस प्रश्न का कोई समा- प्राप्ति हो, वहाँ देव को प्रधान तथा पुरुषार्थ को गौण तथा