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________________ १६२८,f.. १४ फुट ऊंची यह मूर्ति जटाजूट युक्त भगवान आदिनाथ खजुराहो में जैन कलाकार के महत्वपूर्ण योगदान का की है। सिंहासनस्थ यक्ष गोमुख और चक्रेश्वरी भी इसी मूल्यांकन करना अधिक प्रासान है क्योकि वहाँ एक ही की साक्षी है पर तीन सौ वर्ष पूर्व इस मन्दिर के जीर्णोद्धार केन्द्र में शैव, वैष्णव और शाक्त मन्दिरों के समूह भी पाये के समय, सिंहासन के सिंह युगल से प्रभावित होकर एक गये हैं। इनमें विशालता की दृष्टि से कन्दर्प महादेव का तत्कालीन शिलालेख में इसे महावीर की प्रतिमा मान मन्दिर सबसे बड़ा है परन्तु जैन समूह का पार्श्वनाथ लिया गया। तब से यह मूर्ति महावीर रूप में ही पूजी मन्दिर खजुराहो के मन्दिरों में अपनी विशेषता रखता जा रही है। वैसे तो देश में अनेक स्थानों पर इससे भी है। बाह्य भित्तियों पर निर्मित अप्सरा और यक्षिणी विशाल पद्मासन प्रतिमायें है परन्तु कला का जो सबल मूर्तियों में उस मन्दिर ने खजुराहो में अद्वितीय ख्याति पौर अविस्मरणीय प्रभाव तथा वीतरागता की जो भपूर्व पायी है। इन मूर्तियों का प्राकार समूचे खजुराहो के अनुभूति इस प्रतिमा से होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। किसी भी मन्दिर की मूर्तियों के प्राकार से बड़ा है। इसका निर्माण पूर्व मध्यकाल में हुमा। हास्य, लास्य, नृत्य, शृंगार, युद्ध, राग-रंग, क्रीड़ा तथा मध्यकाल-पाज देश में जितने भी शिल्पावशेष उप. छोक, मबाल, क्षुधा प्रादि के साथ मजन, पूजन, अर्चना, बन्ध होते हैं, उनमें से अधिकांश का निर्माण मध्यकाल में ही स्तुति, शास्त्रार्थ, प्रवचन मादि के नाना अभिप्रायों के हुमा । देश के इतिहास में यह समय एक सर्वव्यापी धार्मिक माध्यम से खजुराहो के मूर्ति कलाकार ने कलाकार की चेतना का काल था और इस काल में प्रायः समूचे देश में भावना को इस मन्दिर की भित्तियों पर बड़ी सफलताजो धार्मिक अनुष्ठान, मन्दिर निर्माण और प्रतिमा-प्रतिष्ठायें पूर्वक व्यंजित किया है। शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो दिकहुई, उनके खण्डित साक्ष्य प्राज हमारे चारों पोर बिखरे पाल, द्वारपाल, गंगा-यमुना, प्रष्ट मातृकायें, नवगृह, सोलह पड़े हैं। केवल बौदधधर्म को छोडकर इस काल में शैव. विद्यादेवियाँ, चौबीस शासन-देवियाँ मोर अनगिनत यक्षवैष्णव, शाक्त मौर जैन मतावलम्बियों द्वारा अपने-अपने यक्षियां खजुराहो के इन पारसनाथ भोर पादिनाथ मंदिरों माराध्य देवतामों की प्रचुरतापूर्वक स्थापना की गई। में अंकित है। पारसनाथ मन्दिर की तीन-चार अप्सरा बड़े-बड़े मन्दिर ही नही बल्कि भगणित मन्दिरो के समूह प्रतिमायें तो अनेक देशी-विदेशी विद्वानों की सम्मति में पौर नगर भी निर्मित हुए । देवगढ़, खजुराहो, तिरूपत्ति- समूचे खजुराहो की भद्वितीय भनुपम और मनमोल निधि कुनरम, हलेबीड, पाबू, कोक, एलोरा, मूडबद्री, चित्तौड़ है। पादि ऐसे ही स्थान हैं । इस काल मे कला के विकास और शान्तिनाथ मन्दिर में मूलनायक की १४ फूट ऊंची प्रचार-प्रसार के इस दौर में जैनो का योगदान कम नहीं प्रतिमा के अतिरिक्त धरणेन्द्र-पमावती की सर्व सुन्दर युगल है। एलोरा की इन्द्रसभा नामक जैन गुफा की दो मंजिला मूर्ति तथा सत्ताइस नक्षत्रों का शिलांकन उल्लेखनीय है। बनावट, उसमें पारसनाथ, बाहबलि, इन्द्र और अम्बिका घंटाई मन्दिर भी अपनी बारीक कलाकारी के लिए की सविशेष प्रतिमायें तथा उसकी योजनाबद्ध सज्जा सहज प्रासद्ध है। विस्मरणीय नहीं है । देवगढ़ में तो मध्यकाल की जनकला तिरुपत्तिकुनरम् में भी शिवकांची, विष्णुकांची और को सम्पत्ति का जो कोष भरा पड़ा है, उसकी खोज खबर जिनकांची का एकत्र वैभव देखकर हम जैनकला का लेने में भी प्रभी एक यूग लगेगा। यहां परणेन्द्र-पपावती महत्त्व सहज ही पांक लेते हैं । प्राबू के सगमरमर के सैकड़ों युगल मूर्तिखण्ड तथा अम्बिका के विविध रूपों निर्मित जैन मन्दिर तो अपनी विलक्षणतानों के कारण की भनेक मूर्तियाँ और प्रायः सभी शासन देवियों की एक बहुश्रुत हैं । संगमरमर की सूक्ष्म से सूक्ष्म कटाई और रंगसे एक बढ़कर सुन्दर स्वतन्त्र मूर्तियाँ जनकला की उत्कृष्टता, विरंगी पच्चीकारी तथा बडे-बडे खम्भों के पाधार पर सौन्दर्य-बोध भोर सूक्ष्मतर कल्पना-शक्ति का परिचय दिशाल सभाकक्ष आबू की विशेषता है। छतों, मेहराधों देती पाज भी यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। और तोरणों की सयोजना में तो वहाँ के कलाकार की
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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