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________________ १६०, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त कि श्रेणिक ने तीर्थंकरों के निर्वाण-स्थान खोजकर वहा से कहा कि आज तुमने मझे सच्चे श्रावकों के दर्शन करा उनकी स्मृति में चरण स्थापित कराये थे ।' विद्वानों का दिए । अभय कुमार पशु-वध के विरुद्ध था। राज्य-सुख मत है कि यदि महाराजा श्रेणिक भ. महावीर से ६० त्याग कर दिगम्बर मनि हो मोक्ष पद पाया। हजार प्रश्न न पूछते तो पचम काल में जैन धर्म सम्बन्धी ४. वारिषेण-वारिपेण भी श्रेणिक पुत्र था। गृहस्थी कुछ भी जानकारी न होती। विस्तार के लिए श्रेणिक में भी प्रत्येक प्रष्टमी और चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान चरित्र (सूरत, जो हिन्दी में छप चुका है) देखिए। मे ध्यान लगाता था। बचपन में ही इसे मनि होता देख ३. अभय कुमार-थेणिक पुत्र । समस्त वद्धिमानो कर इसका मित्र तथा राज्यमत्री का पुत्र पुष्पडाल भी उनके में सर्वश्रेष्ठ । एक बार श्रेणिक ने अभय कुमार से एक साथ दिगम्बर मुनि हो गया। परन्तु अपनी काली स्त्री के सफंद, दूसरा काला-दो तम्बू नगरी के बाहर लगवा दिये मोह को न त्याग मका, इसलिए ध्यान में उसका जी न ओर घोषणा करा दी कि जो सच्चे जैनी है, सफेद वे तम्ब लग सका । वारिषेण ने यह बात भांप ली और उसे अपने म और जो नहीं है, वे काले तम्बू में बैठ जायें । शाम का पुराने राजमहल में ले जाकर अपनी अत्यन्त सुन्दर नवश्रेणिक और अभय कुमार देखने गए तो सफेद तम्ब में युवती ३२ रानियाँ दिलाई। पुष्पडाल विचार करने लगा तिल रखने को भी स्थान न था। इतन अधिक व्यक्तिया में कि जब वारिपेण इतने विशाल राज्य-वैभव तथा रूपवती उन्होंने पूछा कि आप अपने को सच्चा जैनी कहते हो ? रानियो का मोह त्याग सकता है तो क्या मै एक काली उन्होने कहा कि हम जैनधर्म के सम्बन्ध में सब कुछ और कुरूप स्त्री को नहीं छोड़ सकता ? उसने वारिषेण जानत है । काले तम्ब मे केवल ३-४ पादमी थे। उनसे का धन्यवाद किया कि आपने मुझे धर्म से डिगने से बचा पूछा कि तुम सच्चे जैनी क्यो नही हो ? उन्होंने कहा कि लिया। दोनों फिर भ० महावीर के समोशरण मे आ गए यत्न करने पर भी हम क्रोध, मान, माया, लोभ को नहीं और शरीर तक मे मोह त्याग कर इतना घोर तप किया कि त्याग सके। अभय कुमार ने कहा-जैनधर्म के सम्बन्ध में केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष-पद पाया । वारिषण सम्यक् भी कुछ जानते है ? उन्होंने कहा-"केवल जानने में स्थिति अग मे सप्रतिष्ठ कहलाने लगे। क्या होता है ? पाचरण तो पूरे रूप में नहीं कर पाते, ५. प्रजातशत्रु-अजातशत्रु भी श्रेणिक पुत्र था । फिर सच्चे धावक कैसे ? |णिक ने अभय कुमार डा० वी० ए० स्मिथ ने प्राक्सफोर्ड हिन्दी ग्राफ इण्डिया 2A. The Hindu Traveller's account, published affected. At night, he went to the houses in Asiatic Society's Journal, January, 1824, of those officers and asked each one to reveals the fact, how Raja Shrenika of give half ounce flesh of his heart, which Magadha, contemporary of Mahavira had been prescribed, as remedy for the Swami had discovered the Nirvan-place queen. Each one excused himself and of Tirthankaras and established charan gave Abhay Kumar a large amount of (Shrines) at Sammed Shikara (Parshv, money for a promise not to mention their Hill in Bihar). refusal to the King. Next day, Abhay ---Honble Justice T. D. Banarji, Kumar deposited the amount in the Judge Patna High Court, Judgement of King's court and told that according to Sammed Sikharji case. his experience, flesh is not available at any 3. In the Court of Bimbasar, some officers price. Those officers also supported him observed that flesh was rather cheap. and it was decided that flesh should not Abhay Kumar was much agrivously be taken. -VOA, 19.7, p. 55.
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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