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________________ ७६, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त पहले जाने और फिर एक-एक दृष्टि से कथन करते हुए वस्तुओं के एक क्षेत्र में रहते हुए भी उनमें संयोग भी दूसरी दष्टि की अपेक्षा रखे । अाजकल जो अनेकांत का नही मानता। म्वरूप बताया जाता है : ऐसा भी है. वैसा भी है, हमें तो जैसा सम्बन्ध प्रात्मा का ज्ञान के साथ है. सब मंजर है, हम तो अनेकांती है, यह तो अनेकांत धर्म वैसा राग के साथ नही है। ज्ञान का मजाक उडाना है । अनेकांत धर्म जैसी वस्तु है उसको व्याप्त-व्यापक रूप है। जहाँ-जहाँ ज्ञान है, वहाँ वहाँ उसी रूप में देखता है, अन्यथा नहीं। इसलिए अनेकात प्रात्मा है और जहाँ-जहाँ प्रात्मा, वहां-वहां ज्ञान ही सत्य स्वरूप है । जो अनेकांत से रहित है, वह मिथ्या है। जहाँ ज्ञान नहीं, वहाँ प्रात्मा नही, जहां प्रात्मा नहीं रूप है : हाथी को खम्भा देखने वाला गलत है, पखा वहाँ ज्ञान नहीं। परन्तु ऐसा सम्बन्ध राग के साथ नहीं। देखने वाला भी गलत है। पहले हाथी को, पूरे को जाने, जहाँ-जहाँ राग है, वहाँ-वहाँ प्रात्मा है परन्तु जहाँ प्रात्मा फिर पैर को खम्भे रूप देखता हुमा हाथी के बाकी बचे है, वहां राग हो भी या न भी हो। इसलिए ज्ञान का मात्मा शरीर के साथ में सापेक्षता रखे तब यह कह सकता है कि के साथ कथन एवं राग और आत्मा का कथन अलग-अलग पैरों की अपेक्षा वह खम्भे जैसा है। हाथी खम्भे रूप है, रूप से करना जरूरी है। अन्यथा दोनों में एक प्रकार का ऐसा नही है। क्योकि पर हाथी से अभेद रूप है, इसलिए ही सम्बन्ध समझ में आने से वस्तु का कथन विपर्यय को पैरो की अपेक्षा हाथी खम्भे रूप है परन्तु उतना ही हाथी प्राप्त हो जाएगा। नही है। पूरे हाथी के लिए बाकी हाथी के स्वरूप की वस्तु का कथन एक उसकी अपेक्षा से होता है, एक अपेक्षा करना जरूरी है। यह तभी हो सकता है जब पूरे संयोगी वस्तु की अपेक्षा से कथन होता है। एक अभेद हाथी का ज्ञान हो। रूप से होता है, एक भेद दृष्टि से होता है। एक गुणों का इसी प्रकार से प्रात्मा नामक वस्तु है। उसमें- भेद करके कथन होता है, एक 'पर' को भिन्न करके कथन (१) ज्ञानादि गुणो का पिण्ड अभेद है, होता है । परन्तु नय की सार्थकता तभी है, जब जैसी वस्तु (२) रागादि भाव हो रहे है, है उसको उसी रूप दिखावे । संयोग को संयोग रूप, एक (३) ज्ञान-दर्शनादि अनेक गुण है, को एक रूप । हमे एक सयोग मे पडे व्यक्ति का कथन (४) ज्ञानादि गुण की अनेक अवस्था हो रही है, इस प्रकार करना है कि सयोग जिसका जिस प्रकार का (५) कर्मों का सम्बन्ध है, है, वह वैसा ही समझ में आ जाय तब उसका जो कथन (६) शरीर का सम्बन्ध है, होगा वह इस तरह से और इस दृष्टि से होगा :(७) बाहर मे स्त्री-पुत्रादिक का, धन-वस्त्रादि का, (१) एक निश्चय-परमार्थ दृष्टि है वह प्रात्मा को सम्बन्ध है। सारे सयोगों से अलग, एक अकेली दिखाती है। अपने अब इसका प्रतिपादन इस प्रकार से करना है कि गुणों से भिन्न है, जैसे - चैतन्य । हरेक सम्बन्ध की तारतम्यता में फरक न पड़े और 'पर' और (२) अशुद्ध निश्चय दृष्टि-यह परिणमन है तो के साथ एकत्व बद्धि न हो जाये। क्योकि एक वस्तु कभी पात्मा में, परन्तु अशुद्ध परिणमन है, जैसे रागादि. क्रोधादि परिणमन । भी अन्य वस्तु रूप नही हो सकती। वस्तु का एक अकेला (३) अनुपचरित सद्भूत व्यबहार नय बताता है-यह पन कायम रहना ही चाहिए । दो द्रव्यो मे एकपना होता प्रात्मा के गुण है इसलिए सद्भूत है। कही बाहर से भाई नही और दो द्रव्यो में एकपने की मान्यता ही मिथ्यात्व हुई बात नही है, जैसा है वैसा ही है । इसलिए अनुपचरित है। दो द्रव्यो की पर्यायो का एक-दूसरे के साथ संयोग और व्यवहार, है तो प्रात्मा के साथ प्रभेदरूप, परन्तु होता है, उसको देख कर अज्ञानी उसमें एकपना मान लेता अलग-अलग वस्तुतः नहीं किए जा सकते, समझाने को है। व्यवहार भी दो वस्तुमों में एकपना नहीं बताता परन्तु अलग-अलग कयन किया गया है, इसलिए व्यवहार है, दो वस्तुप्रो के सयोग को मंजूर करता है। परमार्थ दो जैसे प्रात्मा के ज्ञान-दर्शन गुण प्रादि ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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