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________________ स्थायवाद और अनेकान्त : एक सही विवेचन (४) उपचरित सद्भुत व्यवहार नय बताता है कि बस्तु को जानना और पर्यायदष्टि के विषय भूत वस्तु को यह बात है तो प्रात्मा के अस्तित्व में इसलिए सदभत है जानना दोनो बातो को एक साथ जानना जरूरी है परन्तु परन्तु बाहर से, 'पर' के सम्बन्ध से हुई है, इसलिए उप- कथन एक साथ नही कर सकते-एक को पहले कहना चरित है और अभेद में भेद करके कही गई है, इसलिए पडेगा, दूसरी बात उसके बाद कही जाएगी। वहाँ ऐसा व्यवहार है। जैसे प्रात्मा के मतिज्ञानादि । ये ज्ञान के भेद समझना चाहिए कि अगर एक बात भी कही गई है तो कर्म जनित है। प्रात्मा के ज्ञान गुण की अपूर्ण, अविकसित दूसरी बात भी जरूर जिदा है, उसका निषेध नही है. अवस्था हैं। पहली बात दूसरी की अपेक्षा रखे हुए है, वस्तु का पूरा (५) अनुपचरित असद्भुत व्यवहार नय बताता है स्वरूप दोनो बात कहने पर ही होगा। अगर हम कहते कि यह प्रात्मा के अस्तित्व में नहीं है। इसलिए अमद्भुत है है कि यह प्रात्मा मनुष्य है और यह कथन उपचरित परन्तु आत्मा के साथ निमित्त नमित्तिक सम्बन्ध है; इस- असद्भूत व्यवहार नय से है तो इसका अर्थ यह हा कि लिए अनुपचरित है। प्रात्मा के न होने पर भी प्रात्मा के यह मनुष्य का शरीर प्रात्मा से भिन्न है। फिर भी दोनों स लादार से समाज को मिलाकर यह बात कही गई है। तब दो द्रव्यों मे से बंधी है। एकत्व बुद्धि होने का सवाल नहीं रहता। लोक व्यवहार (६) उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार नय बताता है जो चलता है वह सयोग को ही लेकर चलता है। मटर कि यह प्रात्मा के अस्तित्व मे नहीं है, इसलिए अमद्भत है की खिचडी कहने से केवल मटर नही परन्तु साथ मे और इनका सम्बन्ध प्रात्मा के साथ कर्म के समान नही चावल होने से ही बनेगी। परन्तु कहलावेगी मटर की है, बाहरी है, इसलिए उपचरित है। फिर भी प्रात्मा की खिचडी। पूरी वस्तु का ज्ञान करके फिर जो कथन किसी कही जा रही है इसलिए व्यवहार है। जैसे-आत्मा दृष्टि से किया जाता है, वह बाकी बची वस्तु के कथन को शरीर धारी है, मनुष्य है। साथ रखने पर ही पूरा कथन होता है। (७) उपनय बताता है यह प्रात्मा से सम्बन्धित भी जैसे दूध का उदाहरण देकर समझाया गया है कि नही है परन्तु उपचरित असद्भुत व्यवहार नय के विषय दूध का कथन किस प्रकार से 'पर' सयोग की अपेक्षा के साथ सम्बन्धित है इसलिए नय में शामिल नहीं होने मित मलिन में शामिल नहीं होने किया जाता है, यह कथन उसी पर लागू पड़ता है जो पर भी नय की तरह है। जैसे-मकान, कपड़ा, स्त्री आदि असली दूध के निज स्वरूप को जानता है, उसी का केसको आत्मा की कहना। रिया दूध, गर्म दूध, मीठा दूध, कहना सही है। वही इन सातों बातो से यही साबित होता है कि किसी असली दूध का स्वरूप जानता है। इसलिए केसरिया, गर्म प्रात्मा के एक अकेले स्वरूप को समझ कर यह समझना कहते हुए भी यह समझेगा कि यह संयोग की अपेक्षा है। है कि अन्य का सम्बन्ध प्रात्मा के साथ किस प्रकार का परन्तु जिसने जीवन मे हमेशा मीठा डाला हुमा दूध पिया है। अन्य के सम्बन्ध को बताने वाला अमद्भुत व्यवहार हो और कभी एक अकेले दूध का स्वभाव नही जाना, वह नय है, एक अभेद प्रात्मा में भेद करके कथन करने वाला तो यही समझेगा कि दूध का अकेले का स्वाद मीठा होता सदभत व्यवहार नय है और जो आदमी की अवस्था वर्त- है। वह यह नहीं मानेगा कि मीठापन ऊपर से पाया हमा मान में हो रही है, उसको बताने वाला अशुद्ध नय है। है। इस कारण उसकी दूध सम्बन्धी मान्यता मिथ्या हो इन पाठो को दो भागो में विभाजित किया जा सकता है। जाएगी। इसी प्रकार प्रात्मा का कथन करने में और निश्चय नय याने द्रव्याथिक नय और बाकी सब पर्याया- समझने मे पहले प्रात्मा के एक अकेले स्वभाव को जानना थिक नय। इस प्रकार जो पहले का विषय था कि वस्तु जरूरी है। फिर यह समझे कि इसके साथ इन-इन चीजों द्रव्य-पर्यायरूप अथवा सामान्य विशेषात्मक है, इसलिए पूरी का संयोग इस-इस प्रकार का है, तब तो सयोग मे एकपमा वस्तु का ज्ञान करने के लिए द्रव्य दृष्टि के विषयभूत नहीं बनेगा और जैसी वस्तु है वसी जानकारी हो जाती।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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