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जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
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सम्भवतः इन्हीं गर्ग के वंश में ऋपिपूत्र हए होगे। महाविराचार्य - ये धुरन्धर गणितज्ञ थे। ये राष्ट्रकूट इनका नाम ही इस बात का साक्षी है कि यह किसी ऋषि वश के अमोघवर्ष नप तुक के समय में हुए थे, अतः इनका के वंशज थे अथवा किसी मुनि के आशीर्वाद से उत्पन्न समय ई० सन् ८५० माना जाता है। इन्होंने ज्योतिषपटल हए थे। ऋषिपुत्र का एक ग्रथ निमित्त -शारत्र ही उपलब्ध और गणितसार-संग्रह नाम के ज्योतिष ग्रन्थों की रचना है। इनके द्वारा रची गयी एक सहिता का भी मदनरत्न की है। ये दोनों ही अन्य गणित ज्योतिष के है और इन नामक ग्रंथ में उल्लेख मिलता है। ऋषिपूत्र के उद्धरण ग्रंथो से इनकी विद्वत्ता का ज्ञान सहज ही प्रांका जा सकता बृहत्साहिता की महोत्पली टीका मे उपलब्ध है।
है। गणितसार के प्रारम्भ में गणित की प्रशंसा करते हुए ऋपिपुत्र का समय वराहमिहिर के पहले होना बताया है कि गणित के बिना संसार के किसी भी शास्त्र चाहिए । प्रतः ऋषिपुत्र का प्रभाव वराहमिहिर पर स्पष्ट की जानकारी नहीं हो सकती है। कामशास्त्र, गान्धर्व, है। यहां दो-एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया जायगा। नाटक, सूपशास्त्र, वास्तुविद्या, छन्दशास्त्र, अलंकार, काव्य, ससलोहिवण्णहोवरि संकुण इत्ति होइ णायथ्यो। तर्क, व्याकरण, कलाप्रवृति का पर्याय ज्ञान गणित के बिना संजामं पुण घोरं खज्जं सूरो णिवेदई ।
सम्भव नही है । अतः गणित विद्या सर्वोपरि है।
-ऋपिपुत्र निमित्तशास्त्र इस ग्रंथ में संज्ञाधिकार, परिकर्म-व्यवहार, कलाशशिरुधिरवणे भानो नभस्थले भवन्ति संग्रामाः । सवर्ण व्यवहार, प्रकीर्ण व्यवहार, राशि व्यवहार, मिश्रक
-वराहमिहिर व्यवहार, क्षेत्र-गणित व्यवहार, ज्ञातव्य व्यवहार एवं छाया अपने निमित्तशास्त्र में पृथ्वी पर दिखाई देने वाले व्यवहार नाम के प्रकरण हैं। मिथक व्यवहार में समकुप्राकाश में दृष्टिगोचर होने वाले और विभिन्न प्रकार के ट्टीकरण, विषम कुट्टीकरण और मिश्रक कुट्टीकरण शब्द-श्रवण द्वारा प्रकट होने वाले इन तीन प्रकार के प्रादि अनेक प्रकार के गणित हैं । पाटीगणित और रेखानिमित्तों द्वारा फलाफल का अच्छा निरूपण किया है। गणित की दृष्टि से इसमें अनेक विशेषतायें हैं। इस क्षेत्रवर्षोत्पात, देवोत्पात, रजोत्पात, उल्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात व्यवहार प्रकरण में प्रायत को वर्ग और वर्ग को वृत्त में इत्यादि अनेक उत्पातों द्वारा शुभाशुभत्व की मीमामा बड़े परिणत करने के सिद्धान्त दिये गये है । समत्रिभुज, विषमसुन्दर ढंग से की गई है।
त्रिभुज, समकोण चतुर्भुज, विषमकोण चतुर्भुज, वृत्तक्षेत्र, ___ लग्नशुद्धि या लग्नकुडिका नाम की रचना हरिभद्र सूची व्यास, पचभुज क्षेत्र एवं बहुभुज क्षेत्रों का क्षेत्रफल की मिलती है। हरिभद्र दर्शन, कथा और प्रागम शास्त्र के तथा धनफल निकाला गया है। बहुत बड़े विद्वान् थे। इनका समय पाठवी शती माना ज्योतिप-पटल मे ग्रहों के चार क्षेत्र, सूर्य के भण्डल, माना जाता है। इन्होने १४४० प्रकरण ग्रन्थ रचे हैं। नक्षत्र और तारामों के संस्थान, गीत, स्थिति मौर इनकी अब तक ८८ रचनाओं का पता मुनि जिनविजयजी संख्या आदि का प्रतिपादन किया है। ने लगाया है। इनकी २६ रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है। चन्द्रसेन के द्वारा 'केवल ज्ञान होरा' नामक महत्व__ लग्नशुद्धि प्राकृत भाषा में लिखी गयी ज्योतिष-रचना पूर्ण विशालकाय पथ लिखा गया है । यह ग्रन्थ कल्याणहै। इसमें लग्न के फल, द्वादश भावों के नाम, उनके वर्मा के पीछे का रचा गया प्रतीत होता है। इसके प्रकविचारणीय विषय, लग्न के सम्बन्ध में ग्रहों का फल, ग्रहों रण सारावली से मिलते-जुलते हैं, पर दक्षिण में रचना का स्वरूप, नवांश, उच्चांश मादि का कथन किया गया होने के कारण कर्णाटक प्रदेशों के ज्योतिष का पूर्ण प्रभाव है। जातकशास्त्र या होरा शास्त्र का यह प्रन्थ है । उप- है। इन्होंने ग्रंथ के विषय को स्पष्ट करने के लिए बीचयोगिता की दृष्टि से इसका अधिक महत्व है । ग्रहों के बीच में कन्नड़ भाषा का भी प्राश्रय लिया है। यह अन्य बल तथा लग्न की सभी प्रकार से शुद्धि, पाप ग्रहो का अनुमानतः चार हजार श्लोकों में पूर्ण हुमा हैं। पंथ .मभव, शुभ ग्रहों का सदभाव वणित है।
के प्रारम्भ में कहा गया है कि