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२०८, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
प्रदक्षिणा करते रहते है। चौथे अध्याय में ग्रह, नक्षत्र, घरतर संज्ञक होते हैं। दग्धसंज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनों प्रकीर्णक और तारों का वर्णन किया है। संक्षिप्त रूप में में मिलने से दग्धतम संज्ञक होते है। इन संज्ञामों के माई हुई इनकी चर्चाएं ज्योतिष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पश्चात् फलाफल निकाला गया है। जय-पराजय, लाभा
इस प्रकार आदिकाल में ज्योतिष की अनेक रचनाएं लाभ, जीवन-मरण आदि का विवेचन भी किया गया है । हुई। स्वतंत्र ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य विषयों के धार्मिक इस छोटी-सी कृति में बहुत कुछ निबद्ध कर दिया गया ग्रंथों, आगम ग्रंथों की चणियों, वत्तियों और भाष्यों में भी है। इस कृति की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। इसमें ज्योतिष की महत्त्वपूर्ण बातें अंकित की गई। तिलोय- मध्यवर्ती क, ग और त के स्थान पर य श्रुति पायी पण्णत्ति में ज्योतिर्मण्डल का महत्वपूर्ण वर्णन पाया है। " ज्योतिलोकान्धकार में अयन, गमनमार्ग, नक्षत्र एवं दिन
करलक्खण-यह सामुद्रिक-शास्त्र का छोटा-सा ग्रंथ मान आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है।
है। इसमें रेखाओं का महत्व, स्त्री और पुरुष के हाथों पूर्व मध्यकाल में गणित और फलित दोनों प्रकार के
के विभिन्न लक्षण, अंगुलियों के बीच के अन्तराल पर्वो के ज्योतिष का यथेष्ट विकास हुआ। इसमें ऋषिपुत्र, महा
फल, मणिबन्ध, विद्यारेखा, कुल, धन, ऊर्ध्व, सम्मान, वीराचार्य, चन्द्रसेन, श्रीधर प्रभति ज्योतिविदों ने अपनी समृद्धि, प्रायु, धर्म, व्रत आदि रेखाओं का वर्णन किया है । ममूल्य रचनाओं के द्वारा इस साहित्य की श्रीवद्धि की। भाई, बहन, सन्तान प्रादि की द्योतक रेखाओं के वर्णन के
भद्रबाहु के नाम पर अर्हच्चूडामणिसार नामक एक उपरान्त अंगुष्ठ के अधोभाग मे रहने वाले यव का विभिन्न प्रश्नशास्त्र-सम्बन्धी, ६८ प्राकृत गाथानों में, रचना उप- परिस्थितियों में प्रतिपादन किया गया है। यव का यह लब्ध है । यह रचना चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह की है, इसमें प्रकरण नौ गाथाओ में पाया जाता है। इस ग्रन्थ का तो सन्देह है । हमें ऐसा लगता है कि यह भद्रबाह वराह- उद्देश्य ग्रंथकार ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया हैं :मिहिर के भाई थे, प्रत: संभव है कि इस कृति के लेखक इय करलक्खणमेयं समासमो वंसिनं जइजणस्स । यह द्वितीय भद्रबाह ही होंगे। प्रारम्भ मे वर्णों की संज्ञाएं पुवायरिएहि णरं परिवज्जणं वयं दिज्जा ॥६॥ बतलायी गयी है। भइए प्रो, ये चार स्वर तथा क च यतियों के लिए संक्षेप में करलक्षणों का वर्णन किया ट त प य श ग ज ढ द व लस, ये चौदह व्यंजन प्रालि- गया है। इन लक्षणों के द्वारा व्रत-ग्रहण करने वाले की गित संज्ञक हैं। इनका सभग, उत्तर और संकट नाम भी परीक्षा कर लेनी चाहिए । जब शिष्य में पूरी योग्यता हो, है। पाई ऐ मो, ये चार स्वर तथा ख छठ थफर वह व्रतों का निर्वाह कर सके तथा व्रती जीवन को प्रभावक पशठ, ध म वह ये चौदह व्यंजन अभिप्रमित संज्ञक बना सके, तभी उसे व्रतों की दीक्षा देनी चाहिए। प्रतः हैं। इनके मध्य, उत्तराधर और विकट नाम भी हैं। स्पष्ट है कि इस ग्रंथ का उद्देश्य जनकल्याण के साथ उ ऊ अं अः ये चार स्वर तथा ङ, अंजण न म य व्यंजन नवागत शिष्य की परीक्षा करना ही है । इसका प्रचार भी दग्धसंज्ञक हैं। इनका विकट, संकट, अधर और अशुभ
साधुनों में रहा होगा। नाम भी है। प्रश्न में सभी प्रालिंगित अक्षर हों, तो प्रश्न
ऋषिपुत्र का नाम भी प्रथम श्रेणी के ज्योतिविदों में कर्ता की कार्यसिद्धि होती है।
परिगणित है । इन्हें गर्ग का पुत्र कहा गया है। गर्ग मुनि प्रश्नाक्षरों के दग्ध होने पर कार्यसिद्धि का विनाश
ज्योतिष के धुरन्धर विद्वान् थे, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
आश इनके सम्बन्ध में लिखा मिलता हैहोता है। उत्तर संज्ञक स्वर उत्तर-संज्ञक व्यंजनों में जैन प्रासोज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामनिः । संयुक्त होने से उत्तरतम और उत्तराधर तथा अधर स्वरों तेन स्वयं सुनिर्णीतः यः सत्पात्रः केवली। से संयुक्त होने पर उत्तर और अधर संज्ञक होते हैं । प्रधर एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनषिभिरुदाहृतम् । संज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनों में संयुक्त होने पर प्रधरा- प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाय महात्मना । ११. अर्हच्चूडामणिसार,"गाथा १.८.