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________________ जन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण २०७ मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करने वाले उत्तराभाद्रपद, इसका विचार ४५ वें अध्याय में किया गया है। ५२ व रोहिणी, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा और उत्तरा- अध्याय में इन्द्र-धनुष, विद्युत, चन्द्र ग्रह, नक्षत्र, तारा, षाढ़ा-ये छः नक्षत्र एवं पन्द्रह महर्त तक चन्द्रमा के साथ उदय, अस्त, अमावस्या, पूर्णमासी, मंडल, वीची, युग, योग करने वाले शतमिपा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, उत्कापात, स्वाति और ज्येष्ठा- ये छ. नक्षत्र बताये गये है। दिशादाह आदि निमित्तों से फलकथन किया गया है। चन्द्रप्रज्ञप्ति के १६ वें प्राभत में चन्द्रमा को स्वतः सत्ताईस नक्षत्र पौर उनसे होने वाले शुभाशुभ फल का प्रकाशमान बतलाया है तथा इसके घटने बढ़ने का कारण भी विस्तार से उल्लेख है । सन्धि में इस ग्रंथ में अष्टांग भी स्पष्ट किया गया है। १८वें प्राभत में पृथ्वी तल से निमित्त का विस्तारपूर्वक विभिन्न दृष्टियों से कथन किया सूर्यादि ग्रहों की ऊँचाई बतलाई गयी है। गया है।" ज्योतिष्करण्डक एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसमे अय- लोकविजय-यन्त्र भी एक प्राचीन ज्योतिष-रचना नादि के कथन के साथ नक्षत्र लग्न का भी निरूपण किया है। यह प्राकृत भाषा मे ३० गाथानों में लिखा गया है। गया है । यह लग्न-निरूपण की प्रणाली सर्वथा नवीन और इसमें प्रधानरूप से सुभिक्ष, दुर्भिक्ष की जानकारी दी गयी मौलिक है है । प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए कहा है - लग्गं च दक्षिणाय विसुवे सुवि प्रस उत्तर प्रयणे। पणमिय पयारविंदे तिलोचनाहस्स जगपईवस्स लागं साई विसुवेसू पंचसु वि दक्षिणे प्रयणे बुच्छामि लोयविजयं जंतं जंतुण सिद्धिकयं ॥ अर्थात् अश्विनी और स्वाति ये नक्षत्र विषुव के लग्न जगत्पति नाभिराय के पुत्र त्रिलोकनाथ ऋषभदेव बताये गये है। जिस प्रकार नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था के चरणकमलों में प्रणाम करके जीवों की सिद्धि के लिए को राशि कहा जाता है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्रों की लोक विजय यन्त्र का वर्णन करता है। विशिष्ट अवस्था को लग्न बताया गया है। इसमे १४५ से प्रारम्भ कर १५३ तक ध्रुवा बतइस ग्रंथ में कृत्तिकादि, घनिष्ठादि, भरण्यादि, श्रव- लाए गए हैं। इन ध्र वों पर से ही अपने स्थान के शुभाणादि एवं अभिजित आदि नक्षत्र गणनाओं की विवेचना शुभ फल का प्रतिपादन किया गया है । कृपिशास्त्र की की गई है। ज्योतिष्कर ण्ड का रचनाकाल ई०प० ३०० दष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। के लगभग है। विषय और भाषा-दोनो ही दष्टियों से कालकाचार्य - यह भी निमित्त और ज्योतिष के यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने अपनी प्रतिभा से शककुल के अंगविज्जा का रचनाकाल कुषाण-गुप्त-युग का साहि को स्ववश किया था तथा गर्दभिल्ल को दण्ड सन्धिकाल माना गया है । शरीर के लक्षणों से अथवा दिया था। जैन परम्परा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका अन्य प्रकार के निमित्त या चिह्नों से किसी के लिए शुभा- मुख्य स्थान है। यदि यह प्राचार्य निमित्त और संहिता का शुभ फल का कथन करना ही इस ग्रंथ का वर्ण्य विषय है। निर्माण न करते, तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिष को इस ग्रन्थ में कुल साठ अध्याय है। लम्बे अध्यायों का पापश्रुत समझकर अछूता ही छोड़ देते। पाटलों में विभाजन किया गया है। प्रारम्भ के अध्यायो वराहमिहिर ने बृहज्जातक में कालकसंहिता का में अंगविद्या की उत्पत्ति, स्वरूप, शिष्य के गुण-दोष, अग- उल्लेख किया है। निशीथ चूणि, आवश्यक-णि मादि विद्या का माहात्म्य प्रभृति विषयों का विवेचन किया गया ग्रन्थों से इनके ज्योतिष-ज्ञान का पता चलता है। है । गृह-प्रवेश, यात्रारम्भ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या, चेष्टा उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ मूत्र में जैन ज्योतिष के मादि के द्वारा शुभाशुभ फल का कथन किया गया है। मूल सिद्धान्तों का निरूपण किया है। इनके मत से ग्रहों प्रवासी घर कब और किसी स्थिति में लौटकर पायेगा, का केन्द्र सुमेरु पर्वत है, ग्रह नित्य गतिशील होते हुए मेक १०. भारतीय ज्योतिष, पृ. २०७.
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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