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५६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
उठे, किन्तु महावीर हरिकेशी की साधना से परिचित थे एक श्रावक के लिए उचित है। प्रतः मन्द मन्द मुस्करा रहे थे।
भगवान महावीर की चिन्तन के क्षेत्र में एक अभिनव महावीर की अहिंसा समता पर आधारित थी ।
देन यह भी है कि उन्होंने व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व को उसका वैचारिक पहलू अनेकान्त था। अनेकान्त अर्थात्
महत्व देते हुए पौरुप और प्रात्म-शक्ति का सन्देश दिया। सत्य के पूर्ण रूप को जानने के लिए उसे अनेक पहलुग्रो
श्रमण शब्द का अर्थ ही श्रम करने वाला पुरुषार्थी । से देखना । परसर विरोधी लगने वाले चिन्तन मे भी
महावीर ने कहा था-प्रत्येक प्राणी एक स्वतंत्र प्रात्मा कहीं साम्य का अंश हो सकता है अतः उसके लिए उदार
है जो अपने गुणों का विकास कर परमात्मा बन सकता मन एवं अनाग्रह भावना से सत्य की खोज में लगना
है। वह कभी भी किसी अन्य प्रात्मा मे विलय नही होता अनेकान्त है । महावीर की यही अहिंसा ढाई हजार वर्षों और न नष्ट ही होता है। महावीर ने मानव को अपने के बाद भी संसार के अनेक चिन्तकों द्वारा युग और
अस्तित्व के प्रति आस्था दी एवं व्यक्तित्व के चरम विकास परिस्थितियो के अनुसार आज भो विकसित होती रही
की ओर प्रयत्नशील बनाया। इसी प्रकार व्यक्ति अपने है। महावीर की अहिंसा का वह विस्फोट पाश्चात्य
को हीन अथवा तुच्छ मानकर किसी दूसरे के भरोसे विद्वान् टाल्स्टाय, रसल और स्वाइत्जर तथा राष्ट्रपिता
जीवन नही जीता बल्कि स्वयं अपने पुरुषार्थ से आगे महात्मा गांधी के चिन्तन में खरा उतरा है। महात्मा बढ़ता है। वर्तमान युग में महावीर का यह क्रांतिकारी गाधी ने महावीर की हिसा का प्रयोगात्मक रूप स्वा- चिन्तन जन जन को आकृष्ट कर रहा है। धीनता संग्राम में प्रस्तुत कर अहिंसा को व्यावहारिक
आज से पच्चीस सौ वर्षों पूर्व जिन सिद्धान्तो की प्रतिष्ठा पुनः दिलाई।
महावीर ने देन दी है, वे वर्तमान युग में भी उतने ही महावीर के सन्तुलित और सुखी जीवन जीने के। लिए चिन्तन मे अनेकान्त, भाषा में स्याद्वाद और प्राचार.
उपयोगी सिद्ध हो रहे है बल्कि आज तो उन सिद्धान्तों की
और भी ज्यादा आवश्यकता है । हिसा और भयसे पीड़ित व्यवहार के लिए अणुव्रत की कला सिखाई। दूसरे के विचारो के प्रति सहिष्णुता रखना और दूसरे सिद्धान्त के
प्राणियो के लिए अहिंसा के सिवाय कोई मार्ग नहीं।
अणु अस्त्रो की होड़ मे लगे देश भी विरोधों के बावजूद प्रति अनादर नहीं करना जब हम स्वीकार लेते है तो सहज ही संधर्ष, वैमनस्य और विवाद कम हो जाता है।
एक मंच पर बैठकर सह-अस्तित्व का चिन्तन करते है। आज के शब्दों में अनेकान्त का चिन्तन प्रजातात्रिक
वैज्ञानिक अपने द्वारा बनाये हुए विनाश के हथियारों से पद्धति और समाजवादी समाज-रचना की प्राधार-शिला
खुद परेशान है और बहुमत से स्वीकार करने लगे है कि है। इसीलिए राष्ट्रसन्त विनोबा भावे एवं काका कालेलकर
संयम और अहिंसा के बिना दुनिया में सुख-शांति सम्भव जैसे चिन्तक भी मानते है कि अनेकान्त दर्शन भगवान
नहीं, ऐसी स्थिति मे भगवान महावीर ने जो पहिसा महावीर की मौलिक देन है।
मोर सयम का मार्ग बताया, वही एकमात्र पौषधि है। समाज-रचना के लिए महावीर ने अपरिग्रह पर बल
___सत्य हमेशा सत्य रहता है। उसे काल अथवा परिदिया। सग्रह, शोषण के विरुद्ध मावाज उठाते हुए धन
स्थिति धूमिल नहीं कर सकती। वह अटल ध्र व की
तरह जगती को मालोकित करता रहता है। भगवाम उपार्जन में भी महावीर ने प्रामाणिकता और न्याय का
महावीर के क्रांतिकारी चिन्तन से वर्तमान युग की सन्देश दिया। एक मोर मुनियों के लिए जहां महावीर ने
समस्याओं का सहज समाधान मिल सकता है। पावश्यक पूर्णतः अपरिग्रह का व्रत बताया, वहां गृहस्थों के लिए परि
है कि उनके द्वारा चलाए गए अहिंसा, अनेकान्त और प्रह परिणाम का उपदेश दिया। मंग्रह की सीमा करने के लिए उपदेश दिया। अपार सम्पत्ति और अतुल वैभव से
अपरिग्रह को जीवन-व्यवहार मे उतारें। हमें माशा सम्पन्न प्रानन्द श्रावक परिग्रह परिमाण व्रतधारी थे।
करनी चाहिए कि महावीर के इस २५००वें निर्वाण सम्पत्ति मौर वैभव के सीमांकन के बाद धन का अपने महोत्सव वर्ष में सारा विश्व उनके जीवन एवं दर्शन को सिए ही नहीं बल्कि जन-कल्याण के लिए उपयोय करना समझकर व्यवहार में अपने जीवनमे उतारेगा। 00