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________________ भागवतपुराण और जैनधर्म श्री त्रिवेणीप्रसाद शर्मा, जबलपुर हमारा भारत देश प्रारम्भ से ही सदैव धर्म परायण गये कि धर्म में भ्रष्ट तरीकों एवं माडम्बर के समावेश का रहा है। धर्मपरायणता अपनी पराकाष्ठा पर पहुच कर धर्म- कोई सम्भावना नहीं रह गई। भीरुता में भी परिणत होती देखी गई; यहाँ तक कि युद्ध जैन धर्म के प्रायः सभी प्रमख सिद्धान्त वैदिक धर्म के में भी धर्म की प्रधानता रही और धर्मयुद्ध में अपनी अटूट ग्रन्थों मे मिलते है, यद्यपि यह सच है कि उनके साथ ही आस्था के कारण ही एक नहीं कई बार भारतीयो को । साथ उत्तर वैदिक काल में धर्म के अन्दर विरोधाभास विदेशी प्राक्रमणकारियो से पराजित होना पड़ा । इस बात तथा प्राडम्बरों की बहुलता के कारण सूक्ष्म अध्ययन से का भारतीय इतिहास साक्षी है। ही यह समानता स्पष्ट होती है । इस कथन के प्रतिपादन हेतु श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित कतिपय धार्मिक मान्यसभवत: २५०० ई० पू० एवं २००० ई० पू० के ताप्रो की पोर यहाँ पर संक्षेप में संकेत किया जाता है। बीच पार्यों का भारत प्रवेश पश्चिमोत्तर प्रदेश की भोर से हुआ। भारत मे पाकर बसने व पूर्ण शान्ति स्थापित जन धर्म शास्त्रो के अनुसार भगवान ऋषभदेव इस होने के पश्चात् आर्यों ने वेदो का सृजन किया और चारो युग में धर्म के प्रथम प्रवर्तक थे । वह भगवान् के अवतार वेद उस काल की सभ्यता व धार्मिक अवस्था के परिचा- व प्रथम तीर्थकर थे । इनके उपरांत तेईस और तीर्थकर यक है। वैदिक काल को पूर्व वैदिक व उत्तर वैदिक काल में अवतरित हए जिनमे भगवान महावीर अन्तिम व चौबीसवें विभाजित किया जाता है। पूर्व वैदिक काल मे धर्म का रूप तीर्थकर माने जाते है। इनका जन्म प्राज से लगभग २५अत्यन्त सरल था; और वैदिक धर्म वड़ा ही उदार, व्यापक ७२ वर्ष पूर्व बिहार में हुआ था। श्रीमद्भागवत पुराण एव स्पृहणीय था परन्तु उत्तर वैदिक काल में उसमे अनेक (१-३ प्र. एवं २-७ प्र.) मे भी भगवान् के चौबीस जटिलताओं का समावेश हो गया और कुछ परस्पर विरोधी अवतारों का उल्लेख है जिनमे से श्री ऋषभदेव के रूप में एवं असगत मान्यतायें भी दिखलाई पड़ने लगी। ईसा के भगवान का पाठवा अवतार माना गया है जो जैन धर्म के पूर्व सातवीं सह तक वैदिक धर्म में प्राडम्बर का बाहुल्य प्रवर्तक थे । स्पष्ट परिलक्षित होने लगा। जैन धर्म के निम्नलिखित प्रमुख सिद्धान्तों का दर्शन भी श्रीमद्भागवत पुराण मे कई स्थलों पर होता है :इस सबके परिणाम स्वरूप, प्रबुद्ध धर्मोपदेशकों ने धर्म मात्मा का अस्तित्व : मे पाई हुई जटिलतानों एवं प्राडम्बरो को हटाने तथा उसे पुनः सरल करने की ओर अपना ध्यान लगाया। जैन धर्म मात्म-प्रधान जैन धर्म के अनुसार सभी प्राणियों में, ऐसे प्रयत्नों में अग्रणीय था। जैन धर्म के सिद्धान्तो में. यहां तक कि पेड़-पौधों में भी पृथक मात्मा का अस्तित्व उत्तर वैदिक काल के अन्त के समय तक धर्म में घुसी है। श्रीमद्भागवत (२-६०) के अनुसार स्वयं भगवान हई कुरीतियों व असंगतियों को त्यामने के साथ ही अहिंसा, ने सृष्टि-रचयिता ब्रह्म को श्रीमद्भागवत के मूल चार सत्य, मचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसी सदाचार सम्बधी श्लोकों को सुनाया तथा इस सिद्धान्त की पुष्टि की कि पुरानी धार्मिक मान्यतामों के नियम इतने कठोर कर दिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र इन चारों वर्षों में श्री
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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